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________________ वीर्य : अष्टम अध्ययन ७३६ संस्कृत छाया ये चाऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्यक्त्वदर्शिनः । अशुद्धं तेषां पराकान्तं, सफलं भवति सर्वश: ॥२२॥ अन्वयार्थ (जे याबुद्धा) जो पुरुष धर्म के तत्त्व को नहीं जानते हैं, किन्तु (महाभागा) जगत् में महाभाग्यशाली पूजनीय माने जाते हैं, (वीरा) फिर वे शत्रु सेना को जीतने वाले वीर हैं, तथा (असमतदंसिणो) सम्यग्दर्शन से रहित हैं, (तेसि परक्कंतं असुद्ध) उनका तप, दान आदि में पराक्रम -उद्योग अशुद्ध है, (सव्वसो सफलं होइ) और वह सर्वथा (सफल) कर्मफलयुक्त - कर्मबन्धन का हेतु होता है । भावार्थ जो पुरुष धर्म के रहस्य से अनभिज्ञ हैं, किन्तु लोकपूज्य, महान् वीर हैं, वे सम्यग्दर्शन से रहित--मिथ्यादृष्टि हैं तो उनका किया हुआ तप, दान आदि पराक्रम अशुद्ध है और वह सबका सब कर्मबन्धनरूप फल का जनक होता है। व्याख्या मिथ्यादृष्टि का समस्त पराक्रम कर्मबन्धफलजनक ___ इस गाथा में यह बताया गया है कि संसार में बड़े वीर और महाभाग - पूज्य समझे जाने वाले, किन्तु धर्मतत्त्व से अनभिज्ञ होने के कारण मिथ्यात्वी लोगों का सारा दानादि पराक्रम अशुद्ध है, और वह कर्मबन्धफलजनक होता है। प्रश्न होता है, जो लोग संसार में महामान्य, महाविद्वान् और बड़े वीर कहलाते हैं, वे अबुद्ध और मिथ्यादृष्टि कैसे हैं ? इसका समाधान यों है कि शुष्क व्याकरण और तर्क तथा इसी प्रकार के अन्य शास्त्रों के ज्ञान से जिन्हें अभिमान उत्पन्न हो गया है, जो अपने आपको महापण्डित मानते हैं, परन्तु पारमार्थिक (वस्तु के सच्चे) स्वरूप को न जानने के कारण वे वास्तव में अबुद्ध हैं, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना शुष्क तर्कमात्र से तत्त्वबोध प्राप्त नहीं होता। कहा भी है शास्त्रावगाहपरिघटनतत्परोऽपि, नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् । नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्वी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति ।। अर्थात् - "शास्त्र में गहरे प्रवेश और उसकी व्याख्या करने में निपुण होने पर भी अज्ञानी (अबुध) पुरुष वस्तु के यथार्थ स्वरूप को उसी तरह नहीं जान पाता, जिस प्रकार नाना प्रकार के रसों में डूबी रहने वाली कुड़छी दीर्घकाल तक भी रसों के स्वाद को नहीं जान पाती।" इस प्रकार जो अबुद्ध है, वह बालवीर्यवान् है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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