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अन्वयार्थ
( आयगुत्ता जिइंदिया ) अपनी आत्मा को पाप से गुप्त सुरक्षित रखने वाले, जितेन्द्रिय पुरुष, ( कडं च कज्जमाणं च आगमिस्सं च पावगं ) किया हुआ, किया जाता हुआ या भविष्य में किया जाने वाला जो पाप है, ( सव्वं तं णाणुजाणंति) उस सभी का अनुमोदन नहीं करते हैं ।
सूत्रकृतांग सूत्रे
भावार्थ
अपनी आत्मा को पाप से बचाकर रखने वाले, इन्द्रिय-विजेता पुरुष किसी के द्वारा अतीत में किये गए, वर्तमान में किए जाते हुए और भविष्य में किए जाने वाले समस्त पाप का अनुमोदन नहीं करते ।
व्याख्या
आत्मरक्षातत्पर साधक त्रैकालिक पाप का अनुमोदन नहीं करते
इस गाथा में यह बताया गया है कि जो साधु पापभीरु हैं, अपनी आत्मा को हर तरह से पाप से बचाना चाहते हैं, इन्द्रियविजयी हैं, वे अपनी अनुमोदन शक्ति का उपयोग किसी के भी त्रैकालिक पाप में नहीं करते । वे सदैव इसी प्रकार का चिन्तन करते हैं कि हमें मन-वचन काया की अनुपम शक्तियाँ मिली हैं, उनका उपयोग हम किसी के भूतकालीन, भविष्यकालीन या वर्तमानकालीन पापों के समर्थन या अनुमोदन में नहीं लगाएँगे, अपितु हम त्रैकालिक धर्मकार्य के समर्थन -- अनुमोदन में लगाएँगे, अन्यथा अपनी आत्मिक शक्तियों को गुप्त, मौन रखेंगे । अथवा इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि साधुओं के लिए किन्हीं अनाड़ी लोगों ने जो पाप किया है, वर्तमान में जो पाप करते हैं या कर रहे हैं, और भविष्य में जो करेंगे, उन सबका मन से, वचन से या काया से साधु कदापि अनुमोदन नहीं करते। इसका अर्थ यह हुआ कि वे स्वयं उस पापजनित वस्तु का उपभोग नहीं करते, तथा दूसरों ने अपने स्वार्थ के लिए जो पाप किया है, करते हैं या करेंगे, जैसे कि शत्रु का सिर काट डाला, काट रहा है या काट डालेगा, या चोर को मार डाला, मार रहा है या मार डालेगा, इत्यादि दूसरों के सावद्य (पायुक्त ) अनुष्ठानों को साधु अच्छा नहीं मानते । समाचार-पत्रों से भी ऐसे पापजनित कार्यों के त्रैकालिक समाचार पढ़-सुनकर वे मनवचन काया से उसे अच्छा नहीं समझते । निष्कर्ष यह है कि वे किसी भी मूल्य पर तीनों काल में निष्पन्न पापजनित कार्यों का समर्थन नहीं करते । यही उनके पण्डितवीर्य का आदर्श है ।
मूल पाठ
जे याबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदंसिणो । असुद्धं तेसि परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो ||२२||
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