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वीर्य : अष्टम अध्ययन
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संस्कृत छाया अतिक्रमं तु वाचा, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् । सर्वतः संवृतो दान्तः, आदानं सुसमाहरेत् ।।२०।।
__ अन्वयार्थ (अतिक्कम्मं तु) किसी प्राणी के प्राणों को क्षति पहुँचाने की (वायाए) वाणी से (मणसा वि) अथवा मन से भी (न पत्थए) इच्छा न करे । (सव्वओ संवुडे) किन्तु भीतर से और बाहर से सब ओर से निवृत्त, स्थिर, शान्त या गुप्त होकर रहे । (दंते आयाणं सुसमाहरे) इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु आदान - मोक्ष देने वाले सम्यग्ज्ञानादि का भलीभाँति ग्रहण-पालन करे।
भावार्थ वाणी से या मन से भी किसी भी प्राणी के प्राणों को हानि पहुँचाने की इच्छा न करे; किन्तु अन्दर और बाहर चारों ओर से शान्त, निवृत्त एवं गुप्त होकर रहे। इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादिरूप संयम की तत्परता के साथ समाराधना करे ।
व्याख्या
शान्तिपूर्वक आत्माराधना में शक्ति लगाए आत्माराधना में अपनी शक्ति (वीर्य) लगाने वाला सुविहित साधु क्या करे और क्या न करे? इसके लिए इस गाथा में सुन्दर मार्गदर्शन दिया गया है। जिन प्रवृत्तियों से किसी भी प्राणी के प्राणों को पीड़ा पहुँचती हो, उन हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह या कषाय-सेवन, विषयासक्ति आदि प्रवृत्तियों को साधु वचन और तन से सर्वथा न करे, मन से ऐसी प्रवृत्तियों की इच्छा भी न करे । अपितु बाहर और भीतर सब ओर से अपने को समाहित, शान्त, निवृत्त और गुप्त करले, न अपना कहीं प्रचार-प्रसार करे, न प्रसिद्धि, न कीर्ति का मोह रखे, न प्रशंसा की लालसा। चुपचाप अन्तरात्मा में डुबकी लगाकर अपने आपको ढुंढे, निरीक्षण-परीक्षण करे और इन्द्रियों और मन को विषयों से निवृत्त, निरपेक्ष व अनासक्त करके वह मोक्षप्रदायक रत्नत्रय का सम्यक् पालन करे। यही आत्माराधना में शक्ति लगाने का उपाय है।
मूल पाठ कडं च कज्जमाणं च आगमिस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ॥२१॥
संस्कृत छाया कृतञ्च क्रियमाणं च, आगमिष्यच्च पापकम् । सर्वं तन्नानुजानन्ति, आत्मगुप्ताः जितेन्द्रियाः ॥२१॥
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