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सूत्रकृतांग सूत्र
मूल पाठ पाणे य णाइवाएज्जा, अदिन्नपि य णादए। सादियं ण मूसं बूया, एस धम्मे वुसीमओ ॥१९॥
संस्कृत छाया प्राणांश्च नातिपातयेत् अदत्तमपि च नाऽददीत । सादिकं न मृषांब यादेष धर्मो वृषिमतः (वश्यस्य) ।।१६।।
अन्वयार्थ (पाणे य णाइवाएज्जा) प्राणियों का संहार न करे, (अदिन्नपि य णादए) बिना दी हुई चीज न ले, (सादियं मुसं ण बूया) माया सहित झूठ न बोले, (एस धम्मे वुसीमओ) जितेन्द्रिय पुरुष का यही धर्म है।
भावार्थ साधक प्राणियों की हिंसा न करे, नहीं दी हुई वस्तु न ले, कपटसहित असत्याचरण (दम्भ) न करे--इन्द्रियविजेता का यही धर्म है।
व्याख्या जितेन्द्रिय पुरुष का धर्म
__इस गाथा में जितेन्द्रिय पण्डित पुरुष के धर्म के अंगों का प्रतिपादन किया गया है। जितेन्द्रिय साधु का पहला धर्म यह है कि वह छोटे-बड़े किसी भी प्राणी के प्राणों की हिंसा होती हो, ऐसा कार्य न करे । क्योंकि प्राण अनमोल हैं। एक भी प्राण किसी भी मूल्य पर मिल नहीं सकता। ऐसे अद्भुत और सभी जीवों को प्रिय दसों प्राणों में से किसी एक भी प्राण की विराधना करना उचित नहीं। दूसरा धर्म है-अदत्तादान न ले। किसी के स्वामित्व की छोटी या बड़ी, अल्पमूल्य या बहुमूल्य, कम या ज्यादा, सचित्त या अचित्त कोई भी वस्तु हो, उसके स्वामी की अनुमति इच्छा या प्रदान के बिना ग्रहण करना चोरी है, किसी के हक (अधिकार) का हरण कर लेना भी चोरी है। साधु इस अकृत्य से दूर रहे।
तीसरा धर्म है--कपटपूर्वक मृषावाद का त्याग करे। मायासहित झूठ बोलना, धुमा-फिराकर बात कहना, असली बात छिपाकर अन्यथा बोलना, कहना कुछ, करना कुछ, दिखावा कुछ, आचरण कुछ, दम्भ, मायाचार आदि करना सब मायामृषा है। साधु को इससे कोसों दूर रहना चाहिए। जितेन्द्रिय (वृषिमान या वश्य) पुरुष के श्रुतचारित्ररूप धर्म का यही सार है ।
मूल पाठ अतिक्कम्मं तु वायाए, मणसा वि न पत्थए। सव्वओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥
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