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वीर्य : अष्टम अध्ययन
भावार्थ
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साधु थोड़ा-सा भी अहंकार और कपट न करे । मानने और माया का फल बहुत बुरा होता है, यह समझकर हिताहित विचारक मुनि सुख भोग, एवं प्रतिष्ठा की लालसा न रखे, तथा क्रोधादि को छोड़कर शान्त एवं निःस्पृह या मायारहित होकर विचरण करे ।
व्याख्या
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कषायों और सुखषणाओं से दूर रहे
संयम में उत्कृष्ट पराक्रम करते हुए उत्तम साधु को देखकर यदि कोई सत्ताधीश या धनाढ्य व्यक्ति साधु की पूजा-प्रतिष्ठा करे, अत्यधिक आदर-सत्कार करे या उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति दिखाए तो सुविचारक साधु को मन में जरा भी अहंकार नहीं करना चाहिए । अथवा संलेखना संथारा के समय भी भक्तों और दर्शनार्थियों की भीड़ देखकर साधु मन में जरा भी गर्व न करे कि मैं कितना महान् तपस्वी हूँ, मैं इस समय कितना सौभाग्यशाली हूँ, या मेरी पण्डितमरण- साधना की चारों ओर वाहवाही हो रही है, मेरा सर्वत्र जय-जयकार हो रहा है । इसी प्रकार पाण्डु-आर्या के समान जरा-सी भी माया न करे, अधिक माया का तो कहना ही क्या ? इसी तरह क्रोध और लोभ भी पण्डितमुनि के लिए त्याज्य हैं । मतलब यह है कि इन चारों कषायों का स्वरूप इनके सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप तथा इनके दुष्परिणामों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनका त्याग करे |
कहीं-कहीं 'अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है - अत्यन्त मान सुभूम की तरह दुःखदायक होता है, यह जानकर बुद्धिशाली पुरुष उसे तथा माया को भी छोड़ दे । सरागसंयम में कदाचित् मान का उदय हो जाए तो तुरन्त उसे विफल करदे, यानी दबा दे । इसी तरह माया को भी दबा दे । युद्ध के मोर्चे पर बड़े-बड़े योद्धा जिस बल के द्वारा शत्रु की विराट सेना को जीत लेते हैं, वस्तुतः वह सच्चा वीर्य नहीं है। सच्चा वीर्य वह है, जिसके द्वारा काम, क्रोध, मोह, मान, माया, लोभ आदि आत्म-शत्रुओं को जीता जाय ।
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इसी प्रकार उत्तम संयम - पराक्रमी तपस्वी साधु सुखसुविधाओं के मोह में पड़ कर कहीं छला न जाए, कहीं संयम से फिसल न जाए, इस बात का पूरा ध्यान रखे । क्रोधादि कषायों को जीतकर शान्त - उपशान्त रहे तथा कोई साधु की सेवा करता है या नहीं करता, कोई पूजा - सत्कार करता या नहीं करता है, कोई उसकी प्रशंसा या प्रसिद्धि करता है या नहीं, इन बातों से वह सदा निःस्पृह एवं तटस्थ रहे । तभी वह अपने जीवन में पण्डितवीर्य का आदर्श उपस्थित कर सकेगा ।
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