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सूत्रकृतांग सूत्र (पावकं ण परिणामं तारिसं भासादोसं च) तथा पापरूप परिणाम और पापमय भाषा दोष को भी वजित करे।
भावार्थ मुनि अपने हाथों-पैरों को संकोच कर स्थिर रखे, मन और पाँचों इन्द्रियों को भी उनके विषयों से दूर रखे तथा पापरूप परिणाम (अध्यवसाय) और पापजनक भाषादोष से भी निवृत्त रहे, ताकि इनसे किसी भी जीव को पीड़ा न हो।
व्याख्या
मन-वचन-काया की अशुभ से निवृत्ति आवश्यक
जिस समय साधु पादपोपगमन या इंगितमरण नामक आजीवन अनशन (संथारे) की स्थिति में हो, अथवा ध्यानादि में स्थित हो, उस समय वह इस प्रकार की साधना का अभ्यास कर ले कि उसके हाथ-पैर आदि निश्चल रहें, उन्हें इस प्रकार से सिकोड़कर कटे हुए पेड़ की भाँति स्थिर रखे, जिससे किसी भी जीव को पीड़ा न पहुँचे, तथा मन को दुःसंकल्पों, दुर्विचारों और विषय-कषायों से दूर रखे, आँख, नाक, कान, जीभ एवं स्पर्शेन्द्रिय को भी उनके विषयों में रागद्वष से हटा ले। इसके अतिरिक्त वह इहलोक एवं परलोक में सुख-प्राप्ति की वासनारूप परिणामों एवं पापजनक भाषादोष को न फटकने दे। निष्कर्ष यह है कि साधु मन-वचन काया से गुप्त रहता हुआ दुर्लभ सुसंयम की रक्षा करते हुए और कर्मबन्धनों को काटते हुए पण्डितमरण की प्रतीक्षा करे ।
मूल पाठ अणु माणं च मायं च तं परिन्नाय पंडिए। सातागारवणिहुए, उवसंतेऽणिहे चरे ॥१८॥
संस्कृत छाया अणुं मानं च मायां च, तत् परिज्ञाय पण्डितः । साता-गौरवनिभृत उपशान्तोऽनीहश्चरेत ॥१८।।
अन्वयार्थ (अणु माणं च मायं च) साधु जरा-सा भी अभिमान और माया (छलकपट) न करे (तं परिन्नाय) मान और माया का अनिष्ट फल जानकर (पंडिए) विद्वान् सद्-असद् विचारक साधक (साता-गारव-णिहुए) सुखशीलता तथा प्रतिष्ठा आदि में उद्यत न हो, (उवसंतेऽणिहे चरे) तथा उपशान्त एवं निस्पृह या मायारहित होकर विचरण करे।
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