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________________ वीर्य : अष्टम अध्ययन संस्कृत छाया यथा कूर्मः स्वांगानि, स्वके देहे समाहरेत् 1 एवं पापानि मेधावी, अध्यात्मना समाहरेत् ॥१६॥ अन्वयार्थ ( जहा कुम्मे स अंगाई सए देहे समाहरे) जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने देह में सिकोड़ लेता है, (एवं मेहावी ) इसी प्रकार बुद्धिमान साधक ( पावाइं) अपने पापों को (अज्झप्पेण समाहरे ) धर्मध्यान आदि की भावना से समेट ले, संकुचित करले । भावार्थ जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, वैसे ही बुद्धिशाली साधक अपनी आत्मा में धर्मध्यान की अलख जगाकर अपने पापों को समेट ले । ७३३ व्याख्या कछुए की तरह पापों को समेट ले यहाँ कछुए का उदाहरण देकर समझाया गया है कि जैसे कछुआ जब कोई बाहरी संकट देखता है तो फौरन अपनी गर्दन आदि अंगों को सिकोड़कर अपने शरीर के अन्दर कर लेता है, एक तरह से वह अपने अंगों को निश्चेष्ट कर लेता है, फिर भी सावधान रहता है । वैसे ही मर्यादा में रहने वाला मेधावी हिताहित विवेकी साधक पापकर्म का संकट उपस्थित होते ही फौरन धर्मध्यान आदि अध्यात्म भावना में अपने मन-मस्तिष्क को समेटकर अन्तर्मुखी बन जाय, बहिर्मुखी न रहे । और पापरूप समस्त अनुष्ठानों को धर्मध्यान की भावना से ( बाहर ही ) छोड़कर मरणकाल आने पर संलेखना के द्वारा मन-वचन काया को पवित्र बनाकर पण्डितमरण से अपना शरीर छोड़े । यही पण्डितवीर्य प्रयोग की सच्ची परीक्षा है । Jain Education International मूल पाठ साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंद्रियाणि य । पावकं च परिणामं, भासादोसं च तारिसं ॥ १७॥ संस्कृत छाया संहरेद्धस्तपादञ्च, मनः पञ्चेन्द्रियाणि च । पापकं च परिणाम, भाषादोषं च तादृशम् ||१७|| अन्वयार्थ ( हत्थपाए य साहरे) साधु अपने हाथ पैरों को सिकोड़कर ( स्थिर ) रखे । (मणं पंचेन्दियाणि य) मन और पाँचों इन्द्रियों को भी उनके विषयों से निवृत्त रखे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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