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सूत्रकृतांग सूत्र
मल पाठ जं किंचुवकम्मं जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो ।। तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए ॥१५॥
संस्कृत छाया यं कञ्चिदुपक्रमं जानीयादायुःक्षमस्यात्मनः । तस्यैवान्तरा क्षिप्र, शिक्षा शिक्षेत् पण्डितः ॥१५॥
_ अन्वयार्थ (पंडिए) विद्वान साधक (अप्पणो आउखेमस्स) अपनी आयु का (जं किचुवक्कम्म) यदि कुछ घात का क्षयकाल (जाणे) जाने तो (तस्सेव अंतरा) उसी दौरान ही (खिप्पं) शीघ्र (सिक्खं सिक्खेज्ज) संलेखनारूप शिक्षा ग्रहण करे ।
भावार्थ विद्वान् साधक किसी भी प्रकार से अपनी आयु को क्षीण होती जाने तो उसी दरम्यान शीघ्र ही (क्षयकाल से पहले ही) संलेखनारूप शिक्षा ग्रहण करे।
व्याख्या
आयुष्य-क्षय से पहले संलेखना ग्रहण करे
जब साधक शरीर आदि सभी पदार्थों को अनित्य जानकर ममत्वबुद्धि का उन्मूलन कर लेता है तो उसकी बुद्धि एवं हृदय निर्मल हो जाने से कदाचित् उसे अपनी आयु के क्षण अल्पतम मालूम हों तो अन्य सब विकल्प छोड़कर उसी दौरान शीघ्र ही उसे संल्लेखना-संथारा ग्रहण कर लेना चाहिए ताकि अन्तिम समय में आत्मा की आराधना भलीभाँति हो जाय ।।
__उवक्कम -जिससे आयु क्षय को प्राप्त होती है उसे उपक्रम कहते हैं । यदि साधु किसी भी जरिये से अपनी आयु का उपक्रम (विनाशकारण) जान ले, अर्थात् वह यह जान ले कि मेरी आयु कितनी है, उसका नाश (क्षय) कब, किस प्रकार होगा? तो वह उसे जानते ही उस काल के पहले से आकुलता छोड़कर तथा जीवनमरण की आकांक्षा से रहित होकर 'सिक्खं सिक्खेज्ज' अर्थात् संलेखना रूप शिक्षा को ग्रहण करे। आशय यह है कि भक्त परिज्ञा (अन्न-पानी दोनों का त्याग) तथा इंगितमरण (मर्यादित स्थान में रहकर अन्न-पानी का त्याग करना, परन्तु शारीरिक सेवा कराना) आदि शिक्षा ग्रहण करे। यानी ग्रहण शिक्षा के द्वारा मरणविधि को भलीभाँति जानकर आसेवना-शिक्षा से उसका सेवन करे ।
मल पाठ जहा कुम्मे स अंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥१६॥
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