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________________ ७४० सूत्रकृतांग सूत्र महान भाग वाला महाभाग कहलाता है। भाग शब्द यहाँ पूजार्थक है। इसीलिए महाभाग का अर्थ महापूज्य या लोकप्रसिद्ध हुआ। कई लोग पूर्वजन्म में उपार्जित पुण्य के बल से इस भव में पूजे जाते हैं, प्रसिद्ध हो जाते हैं, सुखसुविधाएँ प्राप्त कर लेते हैं, तथा शस्त्रास्त्र संचालन में कुशल होने के कारण वीर भी कहलाते हैं, फिर भी मिथ्यादृष्टि एवं बालवीर्यवान् होने के कारण शास्त्रकार उनके पराक्रम को अशुद्ध कहते हैं। यानी उनके द्वारा तप, दान आदि किया हुआ प्रयत्न अशुद्ध होता है। वह तप आदि सर्व अनुष्ठान कर्मबन्ध-फल का कारण होता है। जैसे कुवैद्य के द्वारा की हुई चिकित्सा विपरीत फल प्रदान करती है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि के द्वारा की हुई तप आदि क्रियाएँ कर्मनिर्जरा के बदले कर्मबन्धरूप विपरीत फलदायिनी होती हैं, क्योंकि वह भावना (परिणाम) से दूषित एव सद्-असद् विवेक विकल होता है, अथवा निदान से युक्त होता है। जल में एक ही प्रकार का स्वाभाविक रस सर्वत्र होता है, लेकिन भिन्न-भिन्न प्रकार के भू-भागों के सम्पर्क से वह कहीं मीठा और कहीं खारा हो जाता है, इसी प्रकार तप भी विभिन्न पात्रों में विभिन्न प्रकार का फल प्रदान करता है। यही कारण है मिथ्यादृष्टि, फिर वे चाहे कितने लोकपूज्य हों, योद्धा हों, चाहे लौकिक शास्त्रज्ञ हों, उनका पराक्रम उनकी सब क्रिया) कर्मबन्धनरूपफल को उत्पन्न करता है। मल पाठ जे य बुद्धा महाभागा वीरा समत्तदं सिणो । सुद्धं तेसि परक्कंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥ संस्कृत छाया ये च बुद्धा महाभागाः, वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः ।। शुद्धं तेषां पराक्रान्तमफलं भवति सर्वशः ॥२३॥ __ अन्वयार्थ (जे य) जो लोग (बुद्धा) पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जानने वाले हैं, (महाभागा) बड़े पूजनीय हैं, (वीरा) कर्म विदारण करने में शूरवीर हैं, (समत्तदंसिणो) तथा सम्यग्दृष्टि हैं। (तेसि परक्कंतं) उनका संयम, दान, तपादि पराक्रम (उद्योग) (सुद्ध) निर्मल है. (सव्यसो अफलं होइ) और सब अफल- कर्मफलाभावरूप मोक्ष के लिए होता है। भावार्थ जो स्वयं बुद्ध हैं, वस्तुतत्त्वज्ञ हैं, महाभाग । महापूज्य हैं, तथा कर्म को विदारण करने में शूर हैं, सम्यग्दृष्टि हैं, उनका पराक्रम (तप आदि उद्योग) शुद्ध है, वह सदा कर्मबन्धनरूप फल से रहित होता है-निर्जरा का ही कारण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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