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सूत्रकृतांग सूत्र
परिग्रह का लक्षण और पहिचान
__ 'परिगिज्झ'---इस गाथा में परिगिज्झ शब्द के द्वारा शास्त्रकार ने यह द्योतित कर दिया है कि किसी भी सजीव या निर्जीव भावात्म किंवा मूर्त पदार्थ को परिग्रह रूप से ग्रहण करने पर ही वह परिग्रह का रूप धारण करता है। परिग्रह का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी इस प्रकार होता है-'परि-समन्तात् द्रव्यभावरूपेण ग्रह्यते इति परिग्रहः' किसी वस्तु को द्रव्य और भाव रूप से सभी ओर से ग्रहण करना, ममत्व बुद्धि से रखना परिग्रह है।
यहाँ शंका होती है कि अगर ग्रहण करना ही परिग्रह हो तो साधु अपने संयम पालनार्थ रजोहरण, पात्र, अन्य धर्मोपकरण, आहार, वस्त्र, उपाश्रय, पुस्तक, शास्त्र, शरीर आदि ग्रहण करता है, इसलिये ये सब वस्तुएं अपरिग्रही महाव्रती साधु के लिये भी परिग्रह हो जाएगी।
इसका समाधान यह है कि यों किसी पदार्थ को स्थूल रूप से ग्रहण करने, न करने से वह परिग्रह या अपरिग्रह नहीं हो जाता । वह परिग्रह तभी होता है, जब उसे ममत्व, मोह, मूर्छा, आसक्तिपूर्वक ग्रहण किया जाता है । इसीलिये दशवैकालिक सूत्र में कहा है--
जं पि वत्थं वा पायं वा कंबलं पायपुंछणं । तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ बुत्त महेसिणा ।। अर्थात्----साधु-साध्वी जो कुछ भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन आदि धर्मोपकरण रखते हैं या धारण करते हैं, वह संयम और लज्जा निवारण के लिए ही। इस कारण उक्त धर्मोपकरण समूह को प्राणिमात्र के त्राता ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने परिग्रह नहीं कहा है। सभी तीर्थंकरों और आचार्यों ने मूर्छा को ही परिग्रह' कहा है, यही बात भगवान महावीर ने कही है।
किन्तु जिनके रग-रग में मूर्छा ममता भरी है, उनके लिये तुच्छ से तुच्छ वस्तु तिनका या तुष भी परिग्रह है और जिनकी बुद्धि में बाह्य वस्तुएँ तो क्या, अपने शरीर के प्रति भी मूर्छा ममता नहीं, उनके लिए विशाल सातमंजिला भवन भी परिग्रह नहीं, सोना, मणि, रत्न आदि बहुमूल्य वस्तुएं भी उनके लिये धूल समान हैं। ये सामने पड़े हों और वे सामने से होकर पदार्पण कर रहे हों, फिर भी मन में
१. मूर्छा परिग्रहः।
---तत्त्वार्थसूत्र
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