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________________ समय : प्रथम अध्ययन --- प्रथम उद्देशक यत्किचित् भी ममत्वभाव न होने से परिग्रह नहीं। यही बात एक आचार्य ने कहीं है मूर्छाच्छन्नधियां सर्व जगदेव परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः ।। अर्थात्-मूर्छा से जिनकी बुद्धि ग्रस्त हो चुकी है, उनके लिये सारा जगत ही परिग्रह रूप है। जिनके मन मस्तिष्क मूर्छा से रहित हैं उनके लिये सारा जगत ही अपरिग्रह रूप है। इसीलिये तो इस गाथा के पूर्वार्द्ध में कहा गया है--वित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि । ___ इसका तात्पर्य यह है कि वस्तु चाहे सचेतन हो-यानी दो पैर वाले दास, दासी, स्त्री, पुत्र, माता, पिता हो, या चार पैर वाले गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, हाथी, बकरी, कुत्ता आदि कोई भी प्राणी हो, अथवा अचेतन सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल, लोहा, लकड़ी, महल, बाग, नौहरा, हाट, दुकान या मकान, रुपया, नोट या सिक्का आदि कोई भी अचेतन वस्तु हो, चाहे वह वस्तु छोटी हो या बड़ी, अल्पमूल्य हो या बहुमुल्य, थोड़ी मात्रा में हो या अधिक मात्रा में, जब मन में इसके प्रति ममतामूर्छा होगी तो वह चीज परिग्रह हो जाएगी। यों तो संसार का कोई भी पदार्थ अपने आप में परिग्रह या अपरिग्रह रूप नहीं होता । परिग्रह या अपरिग्रह तो उक्त पदार्थ के प्रति ममत्व-मूर्छा से लिप्तता-अलिप्तता ही है और वही क्रमशः बन्धमोक्ष का कारण बनता है । महाभारत (४/७२) में भी स्पष्ट कहा है-- द्व पदे बन्ध-मोक्षाय निर्ममेति ममेति च । ममेति बध्यते जन्तुः निर्ममेति विमुच्यते ॥ -बन्ध और मोक्ष के लिये दार्शनिक जगत में दो ही शब्द अधिकतर प्रयुक्त होते हैं—'मम' और 'निर्मम' । जब किसी वस्तु के प्रति मन-मस्तिष्क में मम (मेरी है। आ जाता है, तब प्राणी कर्मबन्धन से बँध जाता है और जब निर्मम (मेरी नहीं है, मैं उसका नहीं हूँ) आ जाता है, तब बन्धन से मुक्त हो जाता है । ___ कई लोग कहते हैं कि चींटी, कीट, पतंग, भ्रमर, कुत्ता, बिल्ली, आदि तिर्यन्च प्राणी तो सोना, चाँदी, हीरा, मोती आदि वस्तुओं को ग्रहण करते दिखाई नहीं देते, इनके पास कोई वस्त्र, आभूषण, या भोजन, मकान, दुकान या बाग, आदि नहीं होता, ये प्राय: संग्रह करके भी नहीं रखते, तब क्या इन्हें अपरिग्रही नहीं कहा जा सकता ? इसका समाधान पहले ही किया जा चुका है। कोई भी प्राणी तब तक अपरिग्रही नहीं कहला सकता, जब तक कि परिग्रह का मनोयोगपूर्वक त्याग न करे । चींटी, कौआ, कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा आदि तिर्यन्चों के नंग-धडंग घूमते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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