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________________ समय : प्रथम अध्ययन-प्र संस्कृत छाया चित्तवन्तमचित्तं वा परिगृह्य कृशमपि । अन्यं वा अनुजानाति, एवं दुःखान्न मुच्यते ॥२॥ अन्वयार्थ (चित्तमन्तं) चित्वान् अर्थात चैतन्ययुक्त सजीव द्विपद, चतुष्पद आदि प्राणी, (वा) अथवा (अचित्त) चैतन्य र हित--- जड़ सोना-चाँदी आदि (किसामवि) तथा तृच्छ वस्तु भुस्सा, तिनका आदि या स्वल्प भी (परिगिज्झ) परिग्रह रखकर (वा) अथवा (अन्न) दूसरे को परिग्रह रखने की (अणुजाणाइ) अनुज्ञा देता है (एवं) इस प्रकार से वह जीव (दुक्खा) दुःख से (ण मुच्चइ) मुक्त नहीं होता। __ भावार्थ जो व्यक्ति द्विपद, चतुष्पद आदि सचेतन प्राणी को अथवा चैतन्यरहित सोने-चाँदी आदि पदार्थों को, अथवा तण, भस्सा आदि तुच्छ पदार्थों को अल्पमात्रा में भी परिग्रह के रूप में स्वयं (ममत्व करके) रखता है, अथवा दूसरों को परिग्रह रखने की अनुमति देता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता। व्याख्या पूर्वगाथा में बन्धन के स्वरूप और उससे मुक्त होने के उपाय के सम्बन्ध में प्रश्न था, उसका समाधान करने के लिये शास्त्रकार कहते हैं 'चित्तमंतं' । परिग्रह बंधन का प्रधान कारण पूर्वगाथा की व्याख्या में बताया गया था कि बन्धन के मुख्य पाँच कारण हैं---मिथ्यात्व अवि रति, प्रमाद, कषाय और योग। इसलिये यहाँ सर्वप्रथम अविरति के पाँच भेदों-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह–में से सर्वप्रथम परिग्रह के सम्बन्ध में बताया गया है, जो कि तीव्र कर्मबन्धन का कारण है । यहाँ सीधे बन्धन को न बताकर बन्धन के कारणों को बताया गया है। बन्धन तो कर्म हैं, लेकिन वे कर्म किन-किन कारणों से बँधते हैं ? इसे बताने के लिये बन्धन के प्रधान कारणभूत परिग्रह का स्वरूप एवं उसका परिणाम इस गाथा में अभिव्यक्त किया गया है। संसार के सभी समारंभरूप कार्य 'मैं और मेरा' इस प्रकार की स्वार्थ, मोह, आसक्ति, ममत्व एवं तृष्णा की बुद्धि से होते हैं, और यही परि ग्रह है। यही समस्त कर्मबन्धनों का प्रधान कारण बनता है। इसीलिये सर्वप्रथम परिग्रह का स्वरूप, परिणाम एवं वृत्ति का दिग्दर्शन किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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