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सूत्रकृतांग सूत्र में बंधन को जानकर तोड़ने का उपदेश दिया क्योंकि बन्धन का स्वरूप जाने बिना उससे निवृत्ति नहीं हो सकती और निवृत हुए बिना बन्धन के अभावरूप मोक्ष की संभावना भी नहीं हो सकती । किंवा जाणं तिउट्टइ-इससे सम्बन्धित ही दूसरा प्रश्न है-उस बन्धन को कैसे या किस प्रकार जानकर तोड़ा जाय ? ये दोनों प्रश्न ही इस सारे उद्देशक से सम्बद्ध हैं। क्योंकि कर्मबन्धन के कारणभूत परिग्रह, हिंसा आदि अवत, चार्वाक आदि मत प्ररूपण रूप मिथ्यात्व तथा बन्धन तोड़ने के सम्बन्ध में प्रमाद, अज्ञानवश नवीन कर्मबन्धन के कारणभूत कषाय और योग के सम्बन्ध में ही इस अध्ययन में विवेचन है।
___वीरो-वी र शब्द यह भगवान महावीर के लिये प्रयुक्त हुआ है। जैसे --- चतुर्विंशतिस्तव पाठ में 'पासं तह वक्षमाणं च' में पार्श्वनाथ के बदले पावं, शब्द का 'धम्म संति च वंदामि' में धर्मनाथ और शान्तिनाथ के बदले धर्म और शान्ति का प्रयोग हुआ है और यही बोध होता है, वैसे ही यहाँ वीर शब्द कहने से महावीर का बोध होता है।
बंधणं- यहाँ बन्धन शब्द से बन्धन के कारणों को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि बन्धन का स्वरूप तो इस गाथा की प्रथम पंक्ति में लगभग बता दिया गया है । यही कारण है कि आगे की गाथाओं में बन्धन का स्वरूप न बताकर शास्त्रकार ने बन्धन के कारणों का स्वरूप तथा उसकी पहिचान बताई है। जैसे 'धम्मो मंगलं' इस गाथा में धर्म को मंगल कहा है, किन्तु धर्म अपने आप में मंगल नहीं, मंगल का कारण है, वैसे ही यहाँ अगली गाथाओं में विवक्षित परिग्रह, हिंसा, मिथ्यादर्शन आदि स्वयं बन्धन नहीं, कर्मबन्धन के कारणभत हैं। कारण में कार्य का उपचार करके यहाँ बंधणं (बन्धन) शब्द का प्रयोग किया गया है। चूंकि कारण के बिना कार्य कदापि निष्पन्न नहीं होता। यदि कारण के बिना ही कार्य हो जाता तो क्षुधानिवृत्ति चाहने वाला भोजन आदि का उपार्जन न करता। इसीलिये यहाँ शास्त्रकार ने इसी लोकप्रसिद्ध न्यायानुसार कार्य से पहले कारणों का दिग्दर्शन कराया है, ताकि बन्धन के कारणों का स्वरूप भलीभाँति जानकर साधक उनका त्याग कर दे तो कार्यरूप बन्धन को भी रोक सकेगा, उसे भी तोड़ सकेगा, अथवा आत्मा से उन्हें पृथक कर सकेगा।
शिष्य की जिज्ञासा के समाधान के लिये गणधर श्री सुधर्मास्वामी बन्धन के कारण अगली गाथाओं में क्रमशः बता रहे हैं -
मूल पाठ चित्तमंतमचित्तौं वा, परिगिझ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥२॥
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