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________________ समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक २६ बन्धन या बन्ध जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। आत्म-प्रदेशों के साथ कर्मपुद्गलों का बँध जाना, नीरक्षीरवत् एकरूप हो जाना बन्धन या बन्ध कहलाता है। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म ही इस प्रकार के बन्धन हैं । एक आचार्य कहते हैं .. 'जब राग-द्वप से युक्त आत्मा अच्छे-बुरे कामों में लगती है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणीयादि रूप से उसमें प्रवेश करता है, जो जीव के साथ बंध को प्राप्त होता है । जो संसारी जीव है, उसके राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं, उन परिणामों से नये कर्म बन्धित होते हैं। उन कर्मों के बन्ध से विविध गतियों में जन्म लेना पड़ता है। अथवा कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है. वही बन्ध कहलाता है । उस बन्ध की प्रक्रिया चार प्रकार की होती है---प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनूभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । उक्त बन्ध या बन्धन के कारण पाँच हैं.—मिथ्यात्व, अविर ति, प्रमाद, कपाय और योग ।3 निष्कर्ष यह है कि आत्मा के साथ बन्ध ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मबन्धन या मिथ्यात्वादि पाँच अथवा आरम्भ और परिग्रह आदि जो ज्ञानावर गीय आदि कर्मों के कारण स्वरूप बन्धन हैं उन्हें भली-भाँति जानकर तप-संयमादि अनष्ठान रूप विशिष्ट क्रिया से तोड़ना चाहिए, अर्थात अपनी आत्मा से पृथक करना चाहिए अथवा बन्धन के कारणों का परित्याग करना चाहिए। बन्ध का स्वरूप और उसे तोड़ने के सम्बन्ध में प्रश्न भगवान महावीर स्वामी ने परमकरुणा से प्रेरित होकर भव्य आत्माओं को जब आत्म-स्वरूप का बोध प्राप्त करने और उक्त स्वरूप को आच्छादित करने वाले बन्धन को जानकर उरो तोड़ने का उपदेश दिया। जिसे सनकर श्री जम्बूस्वामी ने गणधर श्री सुधर्मास्वामी से नम्रतापूर्वक बन्धन के विशिष्ट स्वरूप को जानने की दृष्टि से पूछा--"भगवान महावीर स्वामी ने बन्धन का क्या स्वरूप बताया है ? और आत्मा क्या (या कैसे) जानकर उस बन्धन को तोड़ता है ?" किमाह बंधणं वीरो---इस पंक्ति में शिष्य की जिज्ञासा बन्धन के स्वरूप को जानने की इसलिए हुई है कि पूर्वोक्त पंक्ति १. परिणमदि जदा अघासुहम्मि असुहम्मि रागदासजुदो । तं पविसदि कम्मरज, णाणावरणादि भावेहि ।। २. सकषायत्वाज्जीवः कर्मण्ये योग्यान पुद्गलान्यादत्ते स बन्धः । -तत्त्वार्थसूत्र. अ० ८ सू० ३ ३. मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः । -तत्वार्थसूत्र ८/१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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