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________________ सूत्रकृतांग सूत्र यहाँ जैनदर्शन के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत का भी प्रतिपादन कर दिया है कि 'ज्ञान- क्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है । मुक्ति के लिये अकेले ज्ञान से कार्य नहीं होता, न अकेली क्रिया से । वेदान्त, सांख्य आदि दर्शनों वाले ज्ञान मात्र से मुक्ति बताते हैं, भीमांसा आदि दर्शनों वाले एकान्त क्रिया से मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं । किन्तु जैनदर्शन ज्ञान और क्रिया दोनों से मुक्ति की प्राप्ति मानता है । इसीलिये कहा गया ---' --' पहले बन्धन का परिज्ञान करके, तत्पश्चात उसे तोड़ने की क्रिया करो ।' तैरने का केवल पुस्तकीय ज्ञान कर लेने मात्र से तैरना नहीं आता, उसका सक्रिय अभ्यास करने पर ही सफलता मिलती है । इसी प्रकार कोरा ज्ञान किसी कार्य को सम्पादन करने में समर्थ नहीं होता । गन्तव्य स्थान का ज्ञान तो हो, लेकिन गमनक्रिया न करने वाला पथिक ज्ञानमात्र से गन्तव्य स्थान तक कैसे पहुँच सकता है ? शास्त्र में अकेले ज्ञान को पंगु कहा है, और अकेली त्रिया को अन्धी | किसी अन्धे को अथवा किसी लंगड़े को आम के दो अलग-अलग बागों में छोड़ दिया जाय और उन्हें कह दिया जाय कि अपने-अपने बाग की रखवाली करो और मनचाहे फल खाओ, तो अकेला अन्धा बाग में लगे हुए फलों को न देख पाने के कारण कैसे खा सकेगा ? तथैव लंगड़ा बाग में लगे हुए फलों को देखकर भी पेड़ पर चढ़कर या खड़ा होकर तोड़ नहीं सकेगा । अतः खा भी कैसे सकेगा ? यही हाल कोरी क्रिया या कोरे ज्ञान का है। ज्ञान क्रिया सहित होने पर ही अबन्ध्य कहलाता है, अन्यथा अकेला ज्ञान बन्ध्य है । २८ बन्धन की परिभाषा, कारण और प्रकार बन्धन को जानकर तोड़ने की बात, उपर्युक्त पंक्ति में कही है । अतः प्रश्न होता है कि व्यवहार में किसी वाणी या वस्तु समूह को रस्सी, डोरी, श्रृंखला, तार आदि से बाँध देने को बन्धन कहा है, परन्तु आत्मा तो अमूर्त है, इन स्थूल आँखों से अदृश्य है, अव्यक्त है, फिर उसको रस्सी आदि पदार्थों से कैसे बाँधा जा सकता है ? अतः यहाँ आत्मा के किस बन्धन की ओर वीतराग प्रभु का संकेत है ? वास्तव में यहाँ रस्सी, श्रृखला आदि स्थूल पदार्थों का द्रव्यबन्धन आत्मा पर नहीं है, यहाँ तो आत्मा के भावबन्धन की ओर ही भगवान का संकेत है । भावबन्धन का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है— जिसके द्वारा आत्मा को परतंत्र बना दिया जाय । २ १. दशवेकालिक सूत्र में भी इसी का समर्थन किया है- ' पढमं नाणं, तओ दया' पहले ज्ञान, फिर दया की क्रिया । २. बध्यते परतंत्रीक्रियते आत्मा अनेन तद्बन्धनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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