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________________ ७२४ सूत्रकृतांग सूत्र अन्वयार्थ (असंजया) असंयमी पुरुष (मणसा वयसा चेव कायसा चेव) मन, वचन और काया से (अंतसो) शारीरिक शक्ति न होने पर मन से ही (आरओ परओ वावि) इहलोक और परलोक दोनों के लिए (दुहावि) कृत और कारित (करने और कराने) दोनों तरह से जीवहिंसा करते हैं। भावार्थ असंयमी (अविरत) पुरुष मन, वचन और शरीर से, शरीर में शक्ति न होने पर भी मन से भी इहलोक और परलोक दोनों के लिए स्वयं प्राणियों का वध करते हैं, और दूसरे से भी कराते हैं। व्याख्या असंयमी पुरुष जीवहिंसा करते-कराते हैं। इस गाथा में बालवीर्यसम्पन्न असंयमी पुरुषों की शक्ति प्राणहिंसा करनेकराने में कैसे लगती है ? इसे सूचित किया है। वास्तव में, असंयमी पुरुष को इस बात का विचार नहीं आता कि मैं जीवों को नष्ट करने-कराने में अपनी अमूल्य शक्ति लगा रहा हूँ, इसका नतीजा कितना बुरा आएगा? इसीलिए वे मन से, वचन से और शरीर से कृत, कारित और अनुमोदित रूप से बेखटके प्राणिहिंसा करते रहते हैं । जब शरीर से अशक्त होते हैं तो वचन से करते हैं, और वचन से भी लाचार हुए तो तन्दुलमत्स्य की तरह मन से ही पाप करके कर्मबंधन कर लेते हैं। इस प्रकार तथाकथित लौकिक शास्त्रों के चक्कर में पड़कर वे इहलोक एवं परलोक के लिए (धर्म आदि के नाम पर) स्वयं भी प्राणिवध करते रहते हैं और दूसरों से भी कराते हैं । यही उनमें बालवीर्य होने की पहिचान है। मूल पाठ वेराइं कुव्वइ वेरी तओ वेरेहिं रज्जई । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥७॥ संस्कृत छाया वैराणि करोति वैरी, ततो वैरैः रज्यते । पापोपगाश्चारम्भाः दुःखस्पर्शाश्चान्तशः ।।७।। अन्वयार्थ (वेरी वेराई कुध्वइ) जीवहिंसा करने वाला पुरुष अनेक जन्मों के लिए जीवों के साथ वैर करता है, (तओ वेरेहि रज्जई) फिर वह नये वैर में संलग्न होता है, (आरंभा य पावोवगा) वस्तुतः जीवहिंसाएँ (आरंभ) पाप की परम्परा चलाती हैं, और अन्त में उनके परिणाम दुःखमय होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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