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वीर्य : अष्टम अध्ययन
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भावार्थ जीवहिंसा करने वाला पुरुष उस जीव के साथ अनेक जन्मों के लिए वैर बाँध लेता है, क्योंकि दूसरे जन्म में वह जीव उसे मारता है, फिर तीसरे जन्म में जीवहिंसक उसे मारता है, इस प्रकार वैर की परम्परा परस्पर चलती रहती है। फिर आरम्भजनित हिंसाएँ पाप को उत्पन्न करती हैं, जिनका विपाक अन्त में दुःखद होता है ।
व्याख्या
जीवहिंसा वैरपरम्पराजनक एवं दुःखान्त इसका आशय स्पष्ट है। बालवीर्यसम्पन्न पुरुष अविवेक के कारण प्राणिघात में अपनी सारी शक्ति लगा देता है, जिसके फलस्वरूप वैर की परम्परा कई जन्मों तक चलती है। फिर जीवहिंसा के द्वारा पापकर्म का बन्ध होने के कारण अन्त में भयंकर दुःख का अनुभव होता है।
मूल पाठ संपरायं णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो । रागदोसस्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहु ।।८।।
संस्कृत छाया सम्परायं नियच्छन्त्यात्मदुष्कृतकारिणः । रागद्वषाश्रिता बाला: पाप कुर्वन्ति ते बहु ॥८॥
___ अन्वयार्थ (अत्तदुक्कडकारिणो) स्वयं पाप करने वाले जीव (संपरायं णियच्छंति) साम्परायिक कर्म बाँधते हैं। (रागदोसस्सिया ते बाला) तथा राग और द्वेष के आश्रय से वे अज्ञानी जीव (बहु पावं कुव्वंति) बहुत पाप करते हैं ।
भावार्थ स्वयं दुष्कर्म करने वाले प्राणी साम्परायिक कर्म बाँधते हैं तथा रागद्वेष के स्थानभूत वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं।
व्याख्या
स्वयं पापकारी साम्परायिक कर्मबन्ध करते हैं कर्म दो प्रकार के होते हैं--ई-पथिक और साम्परायिक । सम्पराय वादरकषायों को कहते हैं, उनसे (अत्यन्त क्रोध आदि से) प्राप्त कर्म साम्परायिक कहलाते हैं । साम्परायिकरूप कर्मबन्धन जीवों की हिंसा के कारण वैरपरम्परावश स्वयं दुष्कृत (पाप) • करनेवाले प्राणी करते हैं। यहाँ उन पाप करने वाले पुरुषों के विशेषण बताते हैं-राग और द्वेष के आश्रयभूत तथा कषाय से मलिनात्मा पुरुष
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