________________
७२२
सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या प्राणिविघातक शास्त्रों एवं मंत्रों का अध्ययन
इस गाथा में बताया गया है कि बालवीर्यसम्पन्न व्यक्ति अपनी शक्तियों का उपयोग प्राणिविघातक शास्त्रों एवं मंत्रों के अभ्यास में करते हैं। अपनी समस्त शक्तियों (वीर्यो) का उपयोग आत्मकल्याण एवं विकास में करना चाहिए, इसके बजाय सुख-साता और अहंकारपोषण में लीन, राग-द्वेष-प्रमादरत, बालवीर्यसम्पन्न लोग अपनी शक्तियों को ऐसे शास्त्रों और मंत्रों को उत्साहपूर्वक सीखने और उनका प्रयोग करने में लगाते हैं। उन सीखी हुई प्राणिघातक विद्याओं का प्रयोग प्राणिहिंसा के लिए होता है । अस्त्र-शस्त्र विद्या तो प्राणिघातक है ही । मारण-मोहनउच्चाटन मंत्रों का प्रयोग भी सरासर जीवहिंसक है । आयुर्वेदशास्त्र या चिकित्साशास्त्र में जीवहिंसा से निष्पन्न कई औषधियों का प्रयोग बताया गया है । चौर्यशास्त्र में धन हरण करने एवं ठगने की विद्या बताई गई है जो परपीड़ाजनक है। कामशास्त्र में कामोत्तेजनाजनक प्रयोग बताये गये हैं, जो वीर्यनाशक हैं । कई लोग पापकर्म के उदय से अथर्ववेद के प्राणिघातकजन क मंत्रों को अश्वमेध, नरमेध, गोमेध, श्येनयाज्ञ आदि यज्ञों के निमित्त पढ़ते हैं। जिन मारण-उच्चाटन आदि मंत्रों से द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों तथा पृथ्वीकाय आदि भूतों की अनेक प्रकार की पीड़ा या हिंसा होती है । गंदे विचारों वाले लोग ही उन्हें पढ़ते हैं और उत्तम अनुष्ठान छोड़ कर अशुभ अनुष्ठानों में अपना पराक्रम करते हैं । जैसे कि कहा है
षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि ।
अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ।। अश्वमेधयज्ञ के वचनानुसार बीच के दिन में तीन कम ६०० पशु मारने के लिए तैयार रखे जाते हैं।
इसके अतिरिक्त चारित्रभ्रष्ट करने वाले तंत्रशास्त्र, जिनमें मद्य, मत्स्य, मांस, मैथुन और मुद्रा, इन पंचमकारों का वर्णन है, इन शास्त्रों को बालवीर्य सम्पन्न ही तो पढ़ सकते हैं । कहाँ तक गिनाएँ ? जितने भी ऐसे प्राणिविघातक शास्त्र या विद्या, मंत्र आदि हैं, उन्हें बालवीर्य वाले ही सीखते हैं और पापकर्म बाँधते हैं।
मूल पाठ माइणो कट्ट माया य, कामभोगे समारभे । हंता छेत्ता पगब्भित्ता, आयसायाणुगामिणो ॥५॥
संस्कृत छाया मायिनः कृत्वा मायाश्च, कामभोगान् समारम्भन्ते । हन्तारच्छेत्तारः प्रकर्त्तयितार आत्मसातानुगामिनः ।।५।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org