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वीर्य : अष्टम अध्ययन
कर्मबन्धन का एक विशिष्ट कारण कहा है और अप्रमाद को अकर्म-कर्मबन्धनरहितत्व । प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहने का रहस्य यह है कि प्रमाद के कारण भानरहित होकर जीव कर्म बाँधता है, वह अपनी सारी शक्ति (वीर्य) को विपरीत अनुष्ठान में लगाकर कर्मबन्धन करता रहता है, इसलिए प्रमादयुक्त सकर्मा जीव का जो भी क्रियानुष्ठान है, वह बालवीर्य है तथा प्रमादरहित पुरुष के कर्तव्य के पीछे सतत आत्मभान होने के कारण उसके कार्य में कर्म का अभाव है, वह अपनी सारी शक्ति अप्रमत्त होकर कर्मक्षय करने, हिंसा आदि आस्रवों तथा कर्मबन्धों से दूर रहने में और स्व-भावरमण में लगाता है, इसलिए ऐसे व्यक्ति का कार्य पण्डित - वीर्य है । इस प्रकार जो व्यक्ति प्रमादी और सकर्मा है, उसके वीर्य को बालवीर्य और अप्रमाद और अकर्मा है, उसके वीर्य को पण्डितवीर्य समझना चाहिए । जीव में इन दोनों की सत्ता से ही क्रमशः बाल और पण्डित का व्यवहार होता है । अभव्यजीवों का बालवीर्य अनादि-अनन्त, और भव्यजीवों का अनादि-सान्त या सादि- सान्त होता है, जबकि पण्डितवीर्य सादि और सान्त ही होता है । इसलिए साधक को प्रमादजन्य बालवीर्य छोड़कर अप्रमादजन्य पण्डितवीर्य को अपनाना चाहिए ।
प्रमादवश मूढ़ बनकर कर्मबन्ध करने वाले अधम पुरुष का बालवीर्य (अधम पुरुषार्थ में शक्ति) किन - किन कुकृत्यों में कैसे-कैसे प्रयुक्त होता है ? इसे अगली गाथा में पढ़िए
मूल पाठ
सत्थमेगे तु सिक्खता, अतिवायाय पाणिणं । एगे मंते अहिज्जंति, पाणभूयविहेडिणी
॥४॥
संस्कृत छाया
शास्त्रमेके तु शिक्षन्ते, अतिपाताय प्राणिनाम् । एके मंत्रानधीयते प्राण- भूत-विहेटकान्
॥४॥
अन्वयार्थ
( एगे पाणिणं अतिवायाय) कई लोग प्राणियों का वध करने के लिए (सत्थं सिक्खता) तलवार आदि शस्त्र ( चलाना ) अथवा धनुर्वेद आदि शास्त्र सीखते हैं, ( एगे पाणभूयविहेडिणो मंते अहिज्जति) तथा कई लोग प्राणी और भूतों (जीवों) को मारने वाले मंत्रों को पढ़ते हैं ।
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भावार्थ
कई बालजीव प्राणियों का संहार करने के लिए तलवार आदि शस्त्रों का चलाना अथवा धनुर्वेद, कौटिल्य अर्थशास्त्र, वात्स्यायन कामशास्त्र, कोकशास्त्र आदि शास्त्रों को सीखते हैं तथा कई अज्ञजीव प्राणियों एवं जीवों के विघातक मंत्रों का अध्ययन करते हैं ।
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