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________________ ७१८ सूत्रकृतांग सूत्र उसके भंग करें तो इस अपेक्षा से यह सादि है और फिर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में चारित्रग्रहण करे तथा उत्कृष्ट अपार्धपुद्गलपरावर्तन काल में फिर चारित्र का उदय हो तो वह अविरति सान्त है । इस अपेक्षा से अविरति सादिसान्त है । पण्डितवीर्य सर्वविरतिरूप है । और वह विरति चारित्रमोहनीयकर्म के क्षय, क्षयोपशम और उपशम से होने के कारण तीन प्रकार की है । इस दृष्टि से भी वीर्य तीन प्रकार का है। यहाँ आध्यात्मिक वीर्य के इन तीनों प्रकारों के सन्दर्भ में शास्त्रकार बताते । अब क्रमप्राप्त प्रथम गाथा इस प्रकार है --- मूल पाठ दुहा वेयं सुक्खायं, वीरियंति पवच्चई कि नु वीरस्स वीरत्त', कहं चेयं पवच्चई ? ॥१॥ संस्कृत छाया द्विधा वेदं स्वाख्यातं वीर्यमिति प्रोच्यते 1 किं नू वीरस्य वीरत्वं कथं चेदं प्रोच्यते ॥ १ ॥ , अन्वयार्थ (वेयं वीरिति पवच्चइ ) यह जो वीर्य कहलाता है, वह (दुहा सुक्खायं ) दो प्रकार का तीर्थकरों ने कहा है । ( वीरस्स कि नु वीरत्त ) वीर पुरुष की वीरता क्या है ? ( कहं चेयं पवच्चई) किस कारण से वह वीर कहलाता है ? भावार्थ यह जो 'वीर्य' नाम से पुकारा जाता है, इसे तीर्थंकरों ने दो प्रकार का कहा है । प्रश्न होता है - वीर का वीरत्व क्या है ? और वह किस कारण से वीर कहलाता है ? व्याख्या वीर्य, वीर और वीरत्व इस गाथा में वीर्य का स्वरूप, प्रकार और वीर तथा वीरत्व के सम्बन्ध में यत्किचित् झाँकी दी है । जो विशेष रूप से अहित को दूर करता है, उसे वीर्य कहते हैं । वह जीव की एक शक्तिविशेष है । उसी शक्ति के सहारे प्रत्येक प्राणी चिन्तन-मनन से लेकर बोलना, चलना, देखना, सूँघना, स्पर्श करना, सोना, जागना आदि तमाम मानसिक, वाचिक एवं कायिक क्रियाएँ कर सकता है । जीवन में से वीर्यशक्ति निकल गई तो Jain Education International १ विशेषेण ईरयति - प्रेरयति अहितं येन तद्वीर्यम्, जीवस्य शक्तिविशेषः । For Private & Personal Use Only - शीलांक-वृत्ति www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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