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वीर्य : अष्टम अध्ययन
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है । अथवा ऐसे अद्भुत साहसिक कार्य करके जो दूसरे के मन में चमत्कार पैदा कर दें फिर भी अहंकार न लाना गाम्भीर्य है । (७) उपयोगबल-इसके दो भेद हैं--- साकार (ज्ञान) उपयोग और अनाकार (दर्शन) उपयोग । साकार उपयोग ८ प्रकार का है, निराकार ४ प्रकार है। इनके द्वारा उपयोग रखने वाला व्यक्ति द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावरूप अपने-अपने विषय का निश्चय करता है, समझता है । (८) योगवीर्य (बल)--- मन, वचन और काया के भेद से योगवीर्य ३ प्रकार का है । अकुशल मन को रोकना, बुरे विचारों में मन को न जाने देना, सत्कर्म के विचार में उसे प्रवृत्त करना, मन को एकाग्र करना मनोवीर्य है। उत्तम साधु मनोवीर्य के प्रभाव से निर्मल और धर्म में स्थिर परिणाम वाले होते हैं । वचनवीर्य के प्रभाव से साधु-साध्वी संभल-सँभलकर, निरवद्य, मधुर, अर्थयुक्त वचन बोलते हैं । कायवीर्य के प्रभाव से साधु अपने हाथ पैर को स्थिर रखकर कछुए की तरह बैठते हैं । (६) तपोवीर्यबारह प्रकार के तप में पराक्रम करना है । तपोवीर्य के प्रभाव से साधु उत्साहपूर्वक तप करते हैं, उन्हें तप करने में किसी प्रकार का खेद नहीं होता। (१०) संयमवीर्य--वहाँ है, जहाँ १७ प्रकार के संयम में 'मैं इतना हूँ' ऐसी भावना करता हुआ साधु जो बल पूर्वक सयम पालन करता है, और यह भाव रखता है कि मैं किस प्रकार अपने संयम में कोई दोष न लगने दूं।
ये और इस प्रकार के सभी वीर्य अध्यात्मवीर्य यानी भाववीर्य हैं। वीर्यप्रवाद पूर्व में वीर्य अनन्त प्रकार के बताये गये हैं। क्योंकि यह पूर्व अनन्त अर्थ वाला है। उसमें वीर्य का प्रतिपादन विभिन्न पहलुओं से किया गया है तथा पूर्व में अनन्त अर्थ हैं, वीर्य पूर्व का अर्थ है, इसलिए भी वीर्य अनन्त हैं।
उपर्युक्त सभी वीर्य तीन कोटि के होते हैं-बालवीर्य, पण्डितवीर्य और बालपण्डितवीर्य । इन सब में उत्तम पण्डितवीर्य होता है, जो साधुओं का होता है । बालपण्डित वीर्य श्रावकों का होता है और बालवीर्य अविवेकी लोगों का होता है । साधुओं का पण्डितवीर्य निर्मल-साधुता में पराक्रम करना है, वह सादिसान्त होता है । क्योंकि जिस समय वे संयम-महाव्रत ग्रहण करते हैं, उस समय से उसकी आदि होती है, और जब वे केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में जाते हैं, उस समय यहाँ का धर्मानुष्ठान समाप्त हो जाता है, इसलिए सान्त कहलाता है । बाल पण्डितवीर्य भी सादिसान्त होता है, क्योंकि जिस समय गृहस्थ देश विरति श्रावकव्रत ग्रहण करता है, अर्थात् यथाशक्ति ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना प्रारम्भ कर देता है, और जब वह साधुता ग्रहण करता है, या श्रावक व्रत भंग करता है, तब उसका वह भूतपूर्व वीर्य समाप्त हो जाता है। इस दृष्टि से वह सादि और सान्त है । अविरति अर्थात् देश से भी ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन न करना बालवीर्य है । वह अभव्य जीवों का अनादि-अनन्त है और भव्यजीवों का अनादि सान्त है । यदि विरति को लेकर
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