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________________ ७१६ सूत्रकृतांग सूत्र है ! हंस और कोयल का स्वर मधुर होता है। किसी-किसी महिला का गायन बहुत मधुर होता है । इस प्रकार की वाकशक्ति संभववाग्वीर्य है। हम आशा करते हैं कि यह श्रावकपुत्र पढ़े बिना ही उचित बोलने योग्य वचनों को बोलने लगेगा, हमें आशा है कि तोता और मैना को यदि मनुष्य के सम्पर्क में रखा जाय तो उनमें मनुष्य भाषा में बोलने की शक्ति आ सकेगी, यहाँ सम्भाव्यवाग्वीर्य है । कायबल -- चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव का बाहुबल तथा तीर्थंकर का अतुल बल संभवकायबल है, क्योंकि त्रिपृष्ठ वासुदेव ने अकेले ही बायें हाथ की हथेली से करोड़ों मन की शिला उठा ली थी। तीर्थकर लोक को अलोक में गेंद की तरह फैक सकते हैं, मेरुपर्वत को डंडे की तरह तथा पृथ्वी को उसके ऊपर छत्ते की तरह रख सकते हैं । यह सब सम्भाव्यकायबल के उदाहरण हैं । आशा की जाती है कि बड़ा होने पर यह पहलवान का लड़का इस बड़ी शिला को उठा लेगा, छाती पर रख कर हाथी के पैर से उसे तुड़वाएगा। यह भी सम्भाव्यकायबल है। __इन्द्रियबल--कान, आँख, नाक आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं, यह इन्द्रियवीर्य है। ये प्रत्येक संभववीर्य और सम्भाव्यवीर्य के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। सम्भवइन्द्रियवीर्य-जैसे कान का विषय-ग्रहणसामर्थ्य १२ योजन का है, शेष ४ इन्द्रियों का भी जिसका जो विषय-ग्रहण सामर्थ्य है वही उसका संभव-इन्द्रियवीर्य है । सम्भाव्यइन्द्रियवीर्य इस प्रकार है--किसी व्यक्ति की इन्द्रिय नष्ट नहीं हुई है, किन्तु इस समय वह थका, हारा, व्यग्र, क्रुद्ध, प्यासा, भूखा या रोग आदि से ग्लान है, भविष्य में आशा की जाती है, कि इन दोषों के शान्त होते ही उसकी अमुक इन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण कर सकेगी। आध्यात्मिक बल-आत्मा की-अन्दर की शक्ति से उत्पन्न सो सात्त्विक बल है, वह आध्यात्मिक वीर्य कहलाता है । वह अनेक प्रकार का है - (१) उद्यम--ज्ञानउपार्जन करने और तपस्या करने में जो आन्तरिक उत्साह है, वह पहला आध्यात्मिक बल है । इसके भी संभव और सम्भाव्य नामक भेद यथासम्भव समझ लेने चाहिए। (२) धुति-समय में स्थिरता, चित्त में स्थैर्य धृति बल है, (३) धीरत्वपरीषहों और उपसर्गों के समय चलायमान न होने का कारण धीरत्व बल है। (४) शौण्डीर्य-त्याग की उच्चकोटि की उत्साहपूर्ण भावना को शौण्डीर्यबल कहते हैं। जैसे भरत चक्री का मन भरतक्षेत्र के ६ खण्ड का राज्य छोड़ने पर भी कम्पित नहीं हुआ। अथवा दुःख में भी खेद न करना शौण्डीर्य है । कठिन कार्य करने का अवसर आने पर दूसरे के भरोसे न रहकर स्वयं ही कर्तव्य समझकर हँसते हँसते उस कार्य को पूर्ण करना भी शौण्डीर्य है । (५) क्षमावीर्य-प्रतिकार करने की शक्ति होते हुए भी दूसरे का अपकार सहना अथवा कोई गाली आदि दे दे, तो भी मन में क्षोभ न करना क्षमावीर्य है। (६) गाम्भीर्य-परीषहों और उपसर्गों से न दवना गाम्भीर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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