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वीर्य : अष्टम अध्ययन
७१६ समझ लो, उसका नाश हो गया। शरीर में जो श्वेत, पारदर्शी, तरल-सा, गाढ़ा, चिकना-सा पदार्थ रहता है, जिसे शुक्र कहते हैं, उसे भी वीर्य कहा जाता है, परन्तु उस वीर्य का इतना महत्त्व नहीं है, जितना कि पराक्रम या सामर्थ्य रूप वीर्य का है। इसीलिए शास्त्रकार ने उसी आध्यात्मिक वीर्य के सिलसिले में कहा है कि वीर्य के दो प्रकार तीर्थकरों व गणधरों ने सम्यक् प्रकार से कहे हैं।
गाथा के उत्तरार्द्ध में प्रश्न उठाया गया है कि वीरपुरुष में वीरत्व या वीर्य क्या वस्तु है ? और किस कारण से उसे वीर कहते हैं ?
__वास्तव में ये दोनों प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं और इन्हीं दोनों प्रश्नों के खंभों पर समग्र वीर्य अध्ययन का महल खड़ा है । अतः अगली गाथाओं में क्रमशः इनका उत्तर शास्त्रकार देते हैं
मल पाठ कम्ममेगे पवेदेति, अकम्मं वावि सुव्वया । एतेहिं दोहि ठाणेहि, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥२॥
संस्कृत छाया कमके प्रवेदयन्त्यकर्माण वाऽपि सुव्रताः आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां, याभ्यां दृश्यन्ते माः ।।२।।
अन्वयार्थ (एगे कम्मं पवेति) कई लोग कर्म को वीर्य कहते हैं, (सुव्वया) और हे सुव्रतो ! (अकम्म वावि) कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं। (मच्चिया) मर्त्यलोक के प्राणी (एतेहिं दोहि ठाणेहिं दीसंति) इन्हीं दो भेदों में देखे जाते हैं ।
भावार्थ श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं हे सुव्रतो ! कई लोग कर्म को वीर्य कहते हैं और दूसरे अकर्म को वीर्य कहते हैं। इस प्रकार वीर्य के दो प्रकार हैं। इन्हीं दो भेदों में मर्त्यलोक के सभी प्राणी दिखाई देते हैं ।
व्याख्या
___ कर्म और अकर्म : वीर्य के दो भेद इम गाथा में कर्म और अकर्म को वीर्य बताने वाले लोगों का मत प्रदर्शित करके दो प्रकार के वीर्य बताए हैं। जो लोग कर्म को ही वीर्य बताते हैं, उनका कहना है कि अपने प्रयत्न से जो क्रिया निष्पादित की जाती है, उसे कर्म कहते हैं और कर्म ही (जोर लगाकर किया जाता है, इसीलिए) वीर्य है । अथवा कर्म ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार का है। कारण में कार्य का उपचार करने से वह अष्टविध कर्म ही आठ प्रकार का वीर्य है । क्योंकि औदयिक भाव से जो निष्पन्न होता है, वह कर्म कहलाता है और औदयिकभाव कर्म के उदय से ही निष्पन्न होता है। इसलिए
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