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अष्टम अध्ययन : वीर्य
सातवें अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है, अब आठवें वीर्य नामक अध्ययन की व्याख्या प्रारम्भ की जा रही है। सातवें अध्ययन में कुशील (शिथिलाचारी एवं पतित ) साधक के साथ-साथ सुशील (सुविहित सदाचारी) साधक का भी निरूपण किया गया है । इन दोनों प्रकार के साधुओं का कुशीलत्व और सुशीलत्व क्रमश: संयम-वीर्यान्तराय (संयमपालन में विघ्नरूप) कर्म के उदय से तथा क्षयोपशम से होता है । अत: वीर्य (बल) के सम्बन्ध में स्पष्ट निरूपण करने हेतु यह आठवाँ अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है ।
विभिन्न पहलुओं से वीर्य और उसके प्रकार
इस अध्ययन के नाम से ही प्रकट है कि इसमें वीर्य अर्थात् पराक्रम के सम्बन्ध में वर्णन है । इसलिए इस अध्ययन का अर्थाधिकार यह है— वीर्य तीन प्रकार का है- (१) बालवीर्य, (अविवेकी), (२) बाल- पण्डितवीर्य ( यथाशक्ति सदाचारी) और (३) पण्डितवीर्य (सम्पूर्ण संयम पालने वाला ) । इन तीनों प्रकार के वीर्य ( आत्मबल) वालों में प्रत्येक का वीर्य (आत्मशक्ति ) जानकर साधु को पण्डितवीर्य में पुरुषार्थ करना अनिवार्य है । इस अध्ययन में कोई उद्देशक नहीं है । वीर्य शब्द यहाँ सामर्थ्य, बल, पराक्रम, या शक्ति का सूचक है ।
विभिश पहलुओं से वीर्य और उसके प्रकार
निक्षेप की दृष्टि से वीर्य के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यों ६ निक्षेप होते हैं । नाम और स्थापनावीर्य सुगम हैं । द्रव्यवीर्य आगमतः और नोआगमतः दो प्रकार का है । जो पुरुष वीर्य को जानता है, परन्तु उसमें उपयोग नहीं रखता, वह आगमतः द्रव्यवीर्य है । नो-आगम से द्रव्यवीर्य ज्ञशरीर तथा भव्यशरीर से व्यतिरिक्त सचित्तवीर्य, अचित्तवीर्य और मिश्रवीर्य यों तीन प्रकार का है। सचित्तवीर्य के तीन भेद हैं--- द्विपद, चतुष्पद और अपद । द्विपदों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का जो वीर्य ( शरीर पराक्रम) है, तथा जिस स्त्रीरत्न का जो वीर्य है, वह यहाँ सचित्त द्विपद द्रव्यवीर्य है । तथा सचित्त चतुष्पदों में उत्तम अश्व, उत्तम हाथी या सिंह, व्याघ्र आदि का जो वीर्य (बल) है, उसे सचित्त चतुष्पद द्रव्यवीर्य समझना चाहिए तथा बोझा ढोने और दौड़ने में इनका जो बल है, वह द्रव्यवीर्य जानना
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