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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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वैसे ही बाह्य-आभ्यन्तर तप से या परीषहों-उपसर्गों से कष्ट पाता हुआ साधु भी रागद्वेष न करे अपितु समभावपूर्वक पीड़ा सहते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा करे। जैसे गाड़ी की धुरी टूट जाने पर वह आगे नहीं चलती, वैसे ही कर्म काट देने पर जन्म, मरण, रोग, शोक आदि प्रपंच की गाड़ी भी आगे नहीं चलती। अर्थात् वह जन्ममरणादि को प्राप्त नहीं करता।
व्याख्या
सुशील साधक द्वारा अन्तिम मंजिल पाने का उपाय __ साधक और सब सावधानी तो रख सकता है, परन्तु जब परीषहों और उपसर्गों की बौछार होने लगती है, तब पीड़ा के मारे उसका मन प्रायः डगमगाने लगता है । वह सोचने लगता है, क्यों व्यर्थ ही इन परीषहों को सहा जाए ? इनके सहने से वर्तमान में तो अत्यन्त दु:ख हो रहा है, आगे कहाँ सुख मिलने वाला है, इन दु:खों के सहने से? इस प्रकार साधक परीषह और उपसर्गों के कष्ट से कतराता है, वह सब कुछ छोड़ने को उद्यत हो जाता है, ऐसे मौके पर गास्त्रकार साधक को परामर्श देते हैं कि वह परीषह या उपसर्ग के कष्ट को एक प्रकार की बाह्य एवं आभ्यन्तर तपस्या समझकर समभाव से सहन करे। जैसे काठ का तख्ता दोनों ओर से छीला जाने पर भी उसमें किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं होता, वैसे ही बाह्य-आभ्यन्तर तप से शरीर को तपाने से दुर्बल हो जाने पर भी साधक रागद्वेष न करे। यदि शरीर नष्ट होने को हो, और किसी तरह से भी धर्मपालन करने में समर्थ न हो तो साधु को चाहिए कि वह मृत्यु का हँसते-हँसते स्वागत करे, मृत्यु का आलिंगन करने में वह बिलकुल न झिझके । आठ प्रकार के कर्मों के क्षय होने से शरीर से सम्बन्धित जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि संसार प्रपञ्च उसी तरह मिट जाता है, जिस तरह गाड़ी का धुरा टूट जाने पर गाड़ी वहीं रुक जाती है। संसाररूपी प्रपंच का समाप्त होना ही अन्तिम मंजिल-मोक्ष पाना है; जहाँ से फिर वापस लौटना नहीं होता।
इति शब्द समाप्ति अर्थ का सूचक है, ब्रवीमि का अर्थ पूर्ववत् है ।
इस प्रकार कुशील परिभाषा नामक सप्तम अध्ययन अमर सुखबोधिनी व्याख्या सहित सम्पूर्ण हुआ !
॥कुशील परिभाषा नामक सप्तम अध्ययन समाप्त ।।
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