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________________ कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन ७०५ __ अन्वयार्थ (उदराणुगिद्ध ) पेट भरने में आसक्त (जे) जो साधक (साउगाई कुलाई धावइ) स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में दौड़ते हैं, तथा (धम्म आघाति) वहाँ जाकर धर्मकथा-धर्मोपदेश करते हैं, (से आपरियाण सयंसे) वे साधक आचार्यों या आर्यों (साधुओं) के शतांश के समान हैं, (जे असणस्स हेऊ लावएज्जा) जो भोजन के लोभ के कारण अपना गुण स्वयं वर्णन करते हैं, वे आर्यों के शतांश भी नहीं हैं, (अहाहु) ऐसा तीर्थंकर ने कहा है। भावार्थ जो उदरभरण में आसक्त होकर स्वादिष्ट भोजन के लोभवश सुस्वादुभोजन वाले अच्छे-अच्छे घरों में ताक-ताक कर जाता है, वहाँ जाकर धर्मोपदेश देता है, तथा जो स्वादिष्ट भोजन के लिए अपना गुण-कीर्तन करता है, वह आचार्यों के सौवें हिस्से के बराबर भी नहीं है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। व्याख्या ___ भोजन के लिए धर्मोपदेश और गुणकीर्तन क्यों ? साधक की भिक्षा स्वाभिमानपूर्वक अमीरी भिक्षा है, वह भिखारियों जैसी दीनवृत्ति से प्रेरित नहीं होती। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं-जो साधु अपनी धर्ममर्यादाओं को भूलकर स्वादिष्ट भोजन पाने की धुन में समभाव से घरों में गोचरी करने के बजाय, ताक-ताक कर बार-बार उन्हीं घरों में जाता है, जहाँ स्वादिष्ट चटपटा भोजन मिलता हो, तथा वहाँ उस घर के लोगों को रिझाने के लिए मनोरंजक धर्मकथा भी वह करता है । इतना ही नहीं, इससे आगे बढ़कर वह उन्हें अपना पक्का भक्त (केवल स्वादिष्ट भोजन पाने हेतु) बनाने की कोशिश करता है, उनके मन में अपने प्रति श्रद्धाभक्ति बढ़ाने या जमाने के लिए वह अपने गुणों की बढ़-चढ़ कर स्वयं प्रशंसा करके उक्त गृहस्थ के परिवार वालों को आकर्षित करता है। और भी मंत्र, तंत्र आदि के अनेकों उपाय अजमाता है । आहार पाने हेतु इस प्रकार की तिकड़मबाजी करने वाला वह साधक आचार्यों के शतांश के समान भी नहीं है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है । वह साधक कुशील है, उदरानुगृद्ध है, चटोरा है, पेटू है। मूल पाठ णिक्खम्म दीणे परभोयणंमि मुहमंगलोए उदराणुगिद्धे । नीवारगिद्धेव महावराहे, अदूरए एहिइ घातमेव ॥२५॥ संस्कृत छाया निष्क्रम्य दीनः परभोजने, मुखमांगलिक उदरानुगृद्धः । नीवारगृद्ध इव महावराह, अदूर एष्यति घातमेव ॥२५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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