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________________ ७०४ सूत्रकृतांग सूत्र संस्कृत छाया यो मातरं च पितरं च हित्वाऽगारं तथा पुत्रपशून् धनं च। कुलानि यो धावति स्वादुकानि, अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥२३॥ अन्वयार्थ (जे मायरं च पियरं च) जो साधक अपने माता और पिता को, (गारं तहा पुत्तपसं धणं च) घरबार तथा पुत्र, पशु और धन को (हिच्चा) छोड़कर (साउगाई कुलाई जे धावइ) स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में दौड़ता है, (से सामणियस्स दूरे) वह साधक श्रमणत्व से कोसों दूर है, (अहाहु) ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। भावार्थ जो साधक माँ, बाप, घरबार, तथा पुत्र स्त्री आदि परिवार, पशु तथा धन सम्पत्ति आदि सर्वस्व छोड़कर स्वादलोलुपतावश स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में भागता फिरता है, समझ लो, वह श्रमणभाव से कोसों दूर है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। व्याख्या गार्हस्थ्य छोड़कर भी स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में ! इस गाथा में यह बताया गया है कि वह साधक अभी कच्चा साधक है, श्रमणभाव से दूर है, साधना में बहुत पीछे है, जो अपना घरबार, कुटम्ब-कबीला, जमीन-जायदाद, धन-सम्पत्ति आदि समस्त गार्हस्थ्यप्रपंचों को छोड़कर त्यागवृत्ति से पंच महाव्रत धारण करके संयमभार तो ग्रहण कर लेता है लेकिन बाद में मनोबलहीन एवं रसलोलुप बनकर ताक-ताक कर सुस्वादु भोजन वाले घरों में स्वादिष्ट भोजन के लिए दौड़ता रहता है । उसे त्याग, वैराग्य, संयम, साधुत्व आदि का कोई विचार नहीं है, एकमात्र बढ़िया स्वादिष्ट आहार पाने की धुन है। निःसन्देह ऐसा व्यक्ति अपनी की-कमाई तपस्या एवं साधना को स्वादलोलुपता के चक्कर में पड़कर मटियामेट कर देता है। मूल पाठ कुलाई जे धावइ साउगाई, आघाति धम्मं उदराणुगिद्धे । अहाहु से आयरियाणं सर्यसे, जे लावएज्जा असणस्स हेऊ ॥२४।। संस्कृत छाया कुलानि यो धावति स्वादुकानि, आख्याति धर्ममुदरानुगृद्धः । अयाहः स आचार्याणां शतांशे, य आलापयेदशनस्य हेतोः ॥२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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