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कुशील - परिभाषा : सप्तम अध्ययन
व्याख्या
सुशील साधु-चर्या की ओर इशारा
इस गाथा में सुशील साधु की अहिंसामयी चर्या की ओर शास्त्रकार ने साधुसाध्वियों का ध्यान खींचा है। उनका इस कथन के पीछे यही अभिप्राय है कि साधु को धर्मपालनार्थं शरीर धारण करना है, और शरीर बिना आहार -पानी के टिकता नहीं है, आहार- पानी - वस्त्रादि जीवन निर्वाह के लिए अनिवार्य हैं, ऐसी स्थिति में वह आहार पानी प्राप्त करने के लिए न तो स्वयं आरम्भ करे, न करावे और न करते हुए का अनुमोदन करे । जो आहार पानी सजीव है, शास्त्रपरिणत एवं प्रासुक नहीं है, अचित्त नहीं है, उस आहार एवं पानी को सचित्त जानकर तथा उसके लेने से जीवहिंसा की सम्भावना होने से उसके ग्रहण करने तथा सेवन करने में कर्मबन्ध समझकर जब तक मोक्ष न हो जाय तब तक उसे ग्रहण व सेवन न करें, सिर्फ प्राक ( अचित्त), एषणीय एवं निर्दोष आहार- पानी, जो भिक्षा में प्राप्त हो, उसी से जीवन निर्वाह करे | सारांश यह है कि साधु कम से कम वस्तु से, अचित्त और सीधी-सादी, अल्पारम्भी वस्तु से अपना जीवन चलाए। वह कब तक इस प्रकार की चर्या से चले ? इसके लिए कहते हैं— 'जोविज्ज य आदिमोवखं' आदि का अर्थ है - संसार, उससे मोक्ष न हो, तब तक इसी प्रकार जीए । अथवा धर्मपालन का आदि-मूल कारण शरीर, उससे जब तक मोक्ष यानी छुटकारा न हो, यानी शरीर न छूटे वहाँ तक इसी प्रकार का निर्दोष प्रासुक आहार -पानी लेकर जीवन चलाए । बीज, कंद आदि जितनी भी सचित्त सजीव वनस्पति आदि पदार्थ हैं, उनका उपभोग कदापि न करे, और न ही शरीर को इन्द्रियविषयों में या स्नान आदि स्त्रीसेवन आदि कामोत्तेजक वस्तुओं में प्रवृत्त करे । मतलब यह है कि शरीर को सुशोभित एवं श्रृंगारित करने के जितने भी साधन -स्नान, तैलमर्दन, पीठी, चन्दनादि लेप आदि जितने भी प्रसाधन हैं, उनसे दूर ही रहे, साथ ही कामोत्तेजन करने वाली स्त्री सम्पर्क या सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री, या अन्य मैथुनकर्म आदि से भी सर्वथा निवृत्त रहे ।
fron यह है कि साधु आत्मकल्याण के लिए जीता है, शरीर श्रृंगार, विभूषा, स्त्रीसंसर्ग या सचित्त आहार पानी का सेवन आदि शरीर से सम्बद्ध कर्मबन्धन की कारणभूत बातों से वास्ता न रखे । सुशील साधु कुशीलवर्द्धक बातों से दूर रहे |
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मूल पाठ
जे मायरं च पियरं च हिच्चा, गारं तहा पुत्तपसुं धणं च । कुलाई जे धावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ॥२३॥
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