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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या बीजों का नाश : उनकी संतान वृद्धि का नाश, आत्मनाश
इस गाथा में बताया गया है कि हरी (सचित्त) वनस्पति की उत्पत्ति के आदि कारण-बीज का जो व्यक्ति नाश करता है, वह एक तरह से अंकुर से लेकर प्रशाखा, फूल, फल आदि तक के रूप में उससे होने वाली वृद्धि का विनाश करता है। वास्तव में बीज का विनाश संतानवृद्धि का विनाश है । ऐसा करने वाला चाहे प्रव्रज्याधारी हो, या संन्यास वेशधारी हो, तापस हो, वास्तव में वह गृहस्थ-सा ही है। अपने इस अपकृत्य के द्वारा वह अपनी आत्मा को ही पापकर्म से वोझिल बनाकर नाना योनियों में भ्रमण का दण्ड देता है । दूसरों का नाश वस्तुतः अपना ही नाश है। जो पुरुष धर्म के नाम से, देवी-देवों की पूजा आदि के नाम से अथवा अपने सुख के लिए बीजों का नाश करता है, वह अपनी आत्मा के विनाश और दुर्गतिपतन को न्यौता देता है । उसे लोग पाखंडी, अनार्य, क्रूरकर्मा, धर्मध्वजी, ढोंगी आदि तुच्छ नाम से पुकारते हैं, अथवा तीर्थंकर आदि सर्वज्ञों ने ऐसे व्यक्ति को अनार्यधर्मा कहा है। यहाँ बीज का नाश तो उपलक्षग है, उससे समग्र वनस्पति काय का नाश ही आत्मविनाशक सूचित किया है ।
मूल पाठ गन्भाइ मिज्जति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, चयंति ते आउक्खए पलीणा ||१०॥
संस्कृत छाया गर्भे म्रियन्ते ब्रु वन्तोऽब्रुवन्तश्च, नराः परे पंचशिखाः कुमाराः । युवानो मध्यमाः स्थविराश्च, त्यजन्ति ते आयुः क्षये प्रलीना ॥१०॥
अन्वयार्थ (गब्भाइ मिज्जंति) हरित वनस्पति का छेदन-भेदन करने वाले जीव प्रायः गर्भ में ही मर जाते हैं, (बुयाबुयाणा) तथा कई तो स्पष्ट बोलने की अवस्था में
और कई अस्पष्ट बोलने तक की उम्र में ही मर जाते हैं। (परे णरा) दूसरे पुरुष (पंचसिहा कुमारा) पंचशिखा वाले कुमार अवस्था में ही मौत के मेहमान हो जाते हैं (जुवाणगा मज्झिमथेरगा य) कई जवान होकर तो कई प्रौढ़ उम्र के होकर अथवा बूढ़े होकर चल बसते हैं। (आउखए पलीणा ते चयंति) इस प्रकार बीज आदि का नाश करने वाले प्राणी इन अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था में आयु क्षीण होने पर अपने शरीर को छोड़ देते हैं।
भावार्थ देवी-देवों की अर्चा या धर्म के नाम से अथवा सुखवृद्धि आदि किसी
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