SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 732
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन ६८७ के आश्रित मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, फूल, फल अदि विभिन्न अवयवों के रूप में पृथक् पृथक् स्थान में रहते हैं । अर्थात् मूल से लेकर पत्त, फल आदि तक में एक ही जीव नहीं, अपितु अनेक जीव हैं । वनस्पतिकाय में रहने वाले इन जीवों के संख्येय, असंख्येय और अनन्त प्रकार हैं । अत: जो व्यक्ति (अग्निकाय-समारम्भक तापस तथा स्वयंपाकी शाक्य आदि साधक तथा अन्य मतीय जो व्यक्ति वनस्पतिकाय के आरम्भ से निवृत्त नहीं हैं, वह) इन जीवों को अपने सुख-साधनों के लिए, अपने पेट भरने या आश्रय लेने अथवा अपने शरीर के पोषणवर्धन के लिए, या देह में हुए घाव को भरने के हेतु जो व्यक्ति काटता है, कुचलता है, खाता है, मसलता है, तोड़ता है, या चूर्ण बनाता है, पकाता है, छप्पर आदि छाता है, वह धृष्टता करके इनका तथा जनके आश्रित अनेक जीवों का धृष्टतापूर्वक विनाश करता है। इन जीवों के विनाश ॥ न तो धर्म होता है, और न ही आत्मा को सुख मिलता है, बल्कि जीवहिंसा से अनेक घोर पापकर्मों का बन्धन करके तत्फलस्वरूप नरकादि गति का मेहमान बनता है; जहाँ दुःख ही दु:ख मिलता है। मूल पाठ जाइं च वडिढ च विणासयंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाहु से लोए अणज्जधम्मे, बीयाइ जे हिंसइ आयसाए ॥६॥ संस्कृत छाया जाति च वृद्धिं च विनाशयन् बीजान्यसंयत आत्मदण्डः । अथाहुः स लोकेऽनार्यधर्मा, बीजानि यो हिनस्त्यात्मसाताय ।।६।। अन्वयार्थ (जे असंजय) जो असंयमी पुरुष (आयसाए) अपने सुख के लिए (बीयाइ हिसइ) बीजों का नाश करता है, वह (जाइं च बुद्धिं च विणासयंते) अंकुर की उत्पत्ति और वृद्धि का विनाश करता है । (आयदंड) बास्तव में वह हिंसा के उक्त पाप के द्वारा अपनी ही आत्मा को दण्डित करता है (लोए से अणज्जधम्मे आहु) तीर्थंकरों ने उसे इस लोक में अनार्य कहा है, अथवा संसार में लोग उसे अनार्य (अनाड़ी) कहते हैं। भावार्थ ___ जो असंयमी पुरुष अपने सुख के लिए बीज का नाश करता है, वह उस बीज से होने वाले अंकुर, शाखा, पत्ते, फूल, फल आदि की उत्पत्ति और वृद्धि का नाश करता है । वास्तव में देखा जाय तो वह उस हिंसा के पाप के द्वारा अपनी आत्मा को ही दण्डित करता है। संसार में तीर्थंकर अथवा प्रत्यक्षदर्शी लोग उसे अनार्यधर्मी कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy