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संस्कृत छाया
हरितानि भूतानि विलम्बकानि, आहार देहाय पृथक् श्रितानि । यच्छिनत्त्यात्मसुखं प्रतीत्य, प्रागल्भ्यात्प्राणानां बहूनामतिपाती ||८|| अन्वयार्थ
( हरियाणि) हरी दूब और अंकुर आदि भी (भूयाणि) जीव हैं, (विलंब - गाणि) वे भी जीव का आकार धारण करते हैं, ( पुढो सियाई) वे मूल, स्कन्ध, शाखा और पत्र आदि के रूप में पृथक्-पृथक् रहते हैं । (जे आयसु पडुच्च ) जो व्यक्ति अपने सुख की अपेक्षा से ( आहार देहा य) तथा अपने आहार या आधारभूत झौंपड़ी मकान आदि अपने शरीर की पुष्टि के लिए (छिदती) इनका छेदन करता है, ( पागब्भि पाणे बहुणं तिवाई) वह धृष्ट पुरुष बहुत-से जीवों का विनाश करता है । भावार्थ
सूत्रकृतांग सूत्र
ह्री दूब, तृण, अंकुर आदि भी वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे भी जीव की विभिन्न अवस्थाओं को धारण करते हैं और वृक्ष के आश्रित मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्ते, फल, फूल आदि अवयवों के रूप में अलग-अलग रहते हैं । इन जीवों का अपने सुख के लिए तथा अपने आहार या आधार (आवास) एवं शरीर - पोषण के लिए जो छेदन-भेदन करता है, वह धृष्टपुरुष अनेक प्राणियों का घात करता है ।
व्याख्या
वनस्पति के विभिन्न अंगों का छेदन : उनका विनाश है।
सब
इस गाथा में वनस्पतिकाय के विभिन्न अवयवों में जीव का अस्तित्व सिद्ध करके उनके छेदन-भेदन का निषेध सूचित किया है । शास्त्रकार का आशय यह है में कि हरी दूब, हरी घास, या हरे अंकुर आदि जितनी भी हरित वनस्पति है, जीव हैं, क्योंकि आहार आदि से इनकी वृद्धि देखी जाती है; तथा वे जीव के आकार को धारण करते हैं, इनमें अन्तश्चेतना, सुषुप्त चेतना होती है । जैसे मनुष्य कलल (वीर्य), अर्बुद ( शुक्राणु या डिम्ब ), मांसपेशी, गर्भ, प्रसव, बाल, कुमार, युवा, मध्यम (प्रौढ़) और वृद्ध आदि शारीरिक अवस्थाएँ धारण करता है, इसी प्रकार हरे शाली धान्य आदि जात ( उत्पन्न ), अभिनव (नवीन), संजात रस ( जिसमें रस पैदा हो गया है) युवा, परिपक्व ( पका हुआ ) और सूखा हुआ तथा मृत ( जीवच्युत) आदि अवस्थाओं को धारण करते हैं । वृक्ष आदि भी जब वे पैदा होते हैं तो अब ये अंकुरित हुए हैं, अब इनके कोंपलें लगी हैं, अब इनके पत्ते, फूल, स्कन्ध, शाखा, फल आदि लगे हैं, इसके पश्चात् जब वे स्कन्ध आदि के रूप में बढ़ने लगते हैं, तब युवा या पोत ( पौधे) कहलाने प्रकार उनकी अन्य अवस्थाएँ भी होती हैं, जिन्हें सभी देखते हैं । तथा वे जीव वृक्ष
शाखा - प्रशाखा लगते हैं । इसी
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