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________________ कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन ६८५ संस्कृत छाया पृथिव्यपि जीवा आपोऽपिजीवाः, प्राणाश्च सम्पातिमाः सम्पतन्ति । संस्वेदजाः काष्ठसमाश्रिताश्चै एतान् दहेदग्नि समारभमाणः ॥७।। अन्वयार्थ (पुढवी वि जीवा) पृथ्वी भी जीव है, (आऊ वि जीवा) जल भी जीव है, (संपाइम पाणा य संपति) तथा सम्पातिम (उड़ने वाले पतंगे आदि) जीव आग में पड़कर मर जाते हैं, (संसेयया) पसीने से पैदा होने वाले प्राणी, (कट्ठसमस्सिया) तथा लकड़ी के आश्रित रहने वाले जीव होते हैं। (अगणि समारभंते एते दहे) जो अग्नि का समारम्भ करता है, वह व्यक्ति इन जीवों को जला देता है। भावार्थ जो जीव अग्नि को प्रज्वलित करता है, वह पृथ्वीकायिक जीवों को, जलकायिक जीवों को, पतंगे आदि उड़ने वाले जीवों को तथा ईंधन के आश्रित रहने वाले जीवों को भस्म कर देता है । व्याख्या अग्नि का आरम्भ : अनेक जीवों के वध का कारण इस गाथा में उन लोगों का सामाधान किया गया है, जो लोग यह मानते हैं कि पृथ्वी में जीव नहीं है, जल में जीव नहीं हैं, तथा कंडे, लकड़ी आदि में कौन से जीव हैं; जिनका नाश हो जाता है ? आग जब जलती है तो किसी न किसी जमीन पर ही जलाई जाती है, किन्तु जब आग की अत्यन्त तेज गर्म आँच उस मिट्टी को लगती है तो मिट्टी के जो जीव हैं, जिनका शरीर ही मिट्टी का है, वे तो नष्ट हो ही जाते हैं, मिट्टी के आश्रित रहने एवं रेंगने वाले कई बारीक त्रस जीव भी तेज आँच से मर जाते हैं। साथ ही मिट्टी में पानी भी मिला रहता है, जब आग जलती है तो पानी के जीव भी समाप्त हो जाते हैं, अथवा जब आग जिस पानी, मिट्टी आदि से बुझाई जाती है, तब उनके जीव भी मर जाते हैं । इसी तरह जब आग जलती है तो बहुत-सी दफा कई पतंगे आदि उड़ने वाले जन्तु या कीड़े तथा पसीने से पैदा होने वाले ज, लीख, खटमल आदि भी उसमें गिर पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त कंडे, लकड़ी आदि आग जलाने के साधनों में कई जीव बैठे रहते हैं, कई बार सांप, बिच्छु, कीड़े, मकोड़े, घुण, दीमक आदि वहाँ आकर बसेरा ले लेते हैं । अग्नि जलाने वाला अविवेकी व्यक्ति इन सब जीवों को फंक देता है । अतः मानना होगा कि अग्निकाय का समारम्भ अनेक जीवों के विनाश का कारण है। मूल पाठ हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई । जे छिदती आयसुहं पडुच्च, पागब्भि पाणे बहुणं तिवाई ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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