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सूत्रकृतांग सूत्र अप्पवेयणतराए चेव । कालोदाई ! तत्थ णं जे से परिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं परिसे बहतरागं पढविकायं समारंभइ, बहुतरागं आउकायं समारंभइ, अप्पतरागं तेउकायं समारंभइ, बहुतरागं वाउकायं समारंभइ, बहुतरागं वणस्सइकायं समारंभइ, बहुतरागं तसकायं समारंभइ । तत्थ णं जे से परिसे अगणिकायं निव्वावेइ से णं परिसे अप्पतरांग पुढविकायं समारंभइ, अप्पतरागं आउक्कायं समारंभइ, बहुतरागं तेउकायं समारंभइ, अप्पतरागं वाउकायं समारंभइ, अप्पतरागं वणस्सइकायं समारंभइ, अप्पतरागं तसकायं समारंभइ।"
अर्थात्- "कालोदायी पूछते हैं-भगवन् ! एक सरीखे भाण्डपात्रादि साधन वाले दो पुरुष अग्निकाय का समारम्भ करते हैं, दोनों में से एक अग्निकाय को प्रज्वलित करता है, और दूसरा उसे बुझाता है, तो भंते ! इन दोनों में से कौन-सा व्यक्ति महाकर्मयुक्त है और कौन-सा अल्पकर्मयुक्त है ? जो आग जलाता है, वह या जो आग बुझाता है, वह ?" इसके उत्तर में भगवान् फरमाते हैं - "कालोदायी ! इन दोनों में से जो व्यक्ति अग्नि प्रज्वलित करता है, वह महाकर्मयुक्त है, यावत् महावेदना युक्त है, तथा जो व्यक्ति आग बुझाता है, वह अल्पकर्म युक्त है। कारण यह है कि जो व्यक्ति आग जलाता है, वह पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय, वनस्पति काय तथा त्रसकाय का बहुत आरम्भ करता है, सिर्फ अग्निकाय का अल्प आरभ करता है, किन्तु जो व्यक्ति आग बुझाता है, वह पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, तथा त्रसकाय का अल्प आरम्भ करता है, लेकिन अग्निकाय का बहुत आरम्भ करता है । कालोदायी ! इसी दृष्टि से आग जलाने वाले को महाकमंयुक्त और जो आग बुझाता है, उसे अल्पकर्मयुक्त कहा है।" और भी कहा है - 'भूयाणं एसमाघाओ हव्ववाहो ण संसओ' निःसन्देह अग्नि का आरम्भ जीवों का नाशक है । इस दृष्टि से सद्-असद् विवेकी विद्वान साधक अपने धर्म (साधुधर्म या गृहस्थधर्म) का विचार करके अग्निकाय का समारम्भ न करे । यहाँ 'पण्डित' शब्द का अर्थ पाप से निवृत्त है । अर्थात् अग्निकाय के समारम्भ करने से अन्य प्राणियों का वध होता है, उससे जो निवृत्त है, वस्तुतः वही पण्डित है।
___ अग्निकाय के समारम्भ से अन्य प्राणिवध कैसे हो सकता है। इसे अगली गाथा में बताते हैं
मूल पाठ पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा, पाणा य संपाइम सपयंति । संसेयसा कट्ठसमस्सिया य, एते दहे अगणि समारभंते ॥७॥
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