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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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संस्कृत छाया उज्ज्वालकः प्राणान् निपातयेत्, निर्वापकोऽग्नि निपातयेत । तस्मात्त मेधावी समीक्ष्य धर्म, न पण्डितोऽग्नि समारभेत् ॥६।।
अन्वयार्थ (उज्जालओ) आग जलाने वाला पुरुष (पाण निवायएज्जा) प्राणियों का घात करता है, और (निव्वावओ) आग बुझाने वाला पुरुष (अगणि निवायवेज्जा) अग्निकाय के जीव का घात करता है। (तम्हा उ) इसलिए (मेहावि) बुद्धिमान (पंडिए) पण्डित पुरुष (धम्म समिक्ख) श्रुत-चारित्ररूप धर्म को देखकर (अगणि ण समारभिज्जा) अग्निकाय का समारम्भ (हिंसाजनक प्रवृत्ति) न करे।
भावार्थ आग जलाने वाला व्यक्ति प्राणियों का घात करता है और आग बुझाने वाला पुरुष भी अग्निकाय के जीवों का वध करता है, इसलिए बुद्धिशील पण्डित पूरुष को चाहिए कि वह अपने धर्म का विचार करके अग्निकाय का आरम्भ न करे ।
व्याख्या
साधक के लिए अग्निकाय-समारम्भ का निषेध अग्नि में जीव हैं, यह बात कई प्रमाणों से सिद्ध है । जो साधक तपने-तपाने, पचन-पाचन एवं प्रकाश आदि कार्यों के लिए लकड़ी या अन्य ईधन डालकर आग जलाता है, वह अग्निकायिक जीवों का तो घात करता ही है, अपितु पृथ्वी आदि के आश्रित रहे हुए स्थावर और त्रस जीवों का घात भी करता है । अथवा वह व्यक्ति प्राणियों को मन-वचन-काया से आयु बल एवं इन्द्रियों से विनष्ट करता है। तथा जो व्यक्ति पानी आदि के द्वारा जलती आग को बुझाता है, वह भी अग्निकाय के एवं तदाश्रित जीवों के प्राणों का नाश करता है।
प्रश्न होता है--एक आग को जलाता है, और दूसरा आग को बुझाता है, इन दोनों में से कौन-सा व्यक्ति दूसरे काय के जीवों का अधिक विनाश करता है ? इसके उत्तर में यहाँ भगवतीसूत्र का प्रमाण प्रस्तुत है, उसी से पाठक निर्णय कर सकेंगे---
"दो भंते ! पूरिसा अन्नमन्त्रण सद्धि अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जाले इ, एगे णं पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ । तेसि भंते ! पुरिसाणं कयरे वा पुरिसे महाकम्मतराए, कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए ? जे वा से पूरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, जे वा से पूरिसे अगणिकाय निव्वावेइ ?' "कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, जाव महावेयणतराए चेव, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव, जाव
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