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________________ ६८२ सूत्रकृतांग सूत्र भावार्थ जो व्यक्ति माता-पिता को छोड़कर श्रमणव्रत को धारण करके अग्निकाय का आरम्भ करता है, तथा जो अपनी सुख-सुविधा के लिए प्राणियों की हिंसा करता है, वह कुशीलधर्म-युक्त है, यह सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है। व्याख्या अग्निकाय समारम्भी कुशीलधर्मा है पूर्वगाथाओं में तथा इस अध्ययन की भूमिका में सामान्य रूप से कुशील का निरूपण किया गया है, अब इस गाथा में शास्त्रकार एक विशिष्ट कुशील, जिसे पाषण्डी कहा जा सकता है, उसके विषय में कहते हैं। जो व्यक्ति श्रमणचर्या के तत्त्व को तथा श्रमणवृत्ति के परमार्थ को नहीं जानता, किन्तु किसी आवेश में या सनक में आकर अथवा देखा-देखी या फिर घर में किसी के द्वारा ताना मारे जाने पर अथवा सुख-सुविधाओं के या पूजा-प्रतिष्ठा के प्रलोभन में आकर माता-पिता तथा उपलक्षण से भाई-बहन, स्त्री-पुत्र आदि परिवार को छोड़कर सहसा श्रमणव्रत की दीक्षा अंगीकार कर लेता है, श्रमणवेष पहन लेता है, सिर मुडा लेता है, लेकिन अपने धर्म की मर्यादा को भूलकर, अहिंसा का पूर्णरूप से पालन करने की प्रतिज्ञा को ठुकराकर अग्निकाय का आरम्भ करने लगता है। अर्थात् वह पचन-पाचन आदि करने-कराने अनुमति देने एवं उद्दिष्ट आहार-सेवन करने इत्यादि के रूप में अग्निकाय का आरम्भ करता है। वह पाषण्डी ---द्रव्यश्रमण अथवा तथाकथित श्रमणव्रतधारी अग्निकाय का आरम्भ करने से कुशील है। जिसके धर्म (श्रमणधर्म) का स्वभाव कुत्सित है--बिगड़ गया है, उसे कुशीलधर्मा कहते हैं। ऐसा तीर्थंकर, गणधर आदि ने कहा है । ऐसा व्यक्ति कुशील कैसे है ? शास्त्रकार इसी का समाधान करते हुए कहते हैं---'भूयाइं जे हिंसति आयसाते ।' अर्थात् -- भूतों--प्राणियों का वध जो अपनी सुखसुविधा के लिए अथवा परलोक में सुख मिलेगा या स्वर्ग-मोक्ष के सुख के लिए संस्कृति या धर्म की ओट में या रूढ़िपरम्परा या रीति-रिवाजों के पालन करने हेतु करते हैं, वे कुशील हैं। अथवा स्वर्गप्राप्ति की इच्छा से जो पंचाग्निसेवन तप करते हैं, अग्निहोम आदि क्रियाएँ करते हैं या लौकिक पुरुष पचन-पाचन आदि के द्वारा अग्निकाय-समारम्भ करके सुख चाहते हैं, वे सब कुशील हैं । मूल पाठ उज्जालओ पाण निवायएज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा । तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्मं, ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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