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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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जिस प्रकार वह कर्म किया गया है, उसी प्रकार वह अपने कर्ता को एक बार या अनेक बार फल देता है । अथवा वह दूसरी तरह से एक बार या हजारों बार सिर का या हाथ-पैरों का छेदनरूप फल कर्ता को देता है । इस प्रकार प्राणियों को बहुत दण्ड देने वाले वे कुशील-जीव चातुर्गतिक संसार में पड़े हुए अरहट यंत्र की तरह बार-बार संसार में भ्रमण करते रहते हैं और तीव्र से तीव्र दुःख भोगते रहते हैं । पूर्वजन्म के एक कर्म का फल भोगते हुए वे आर्तध्यान करके फिर दूसरा कर्म बाँधते हैं और अपने पापकर्म का फल भोगते हैं। अपने किये हुए कर्म का फल भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं । कृतकर्म का फल भोग अनिवार्य है । ज्ञानी पुरुष कहते हैं -
मा होहि रे विसन्नो जीव ! तुमं विमणदुम्मणो दीणो । णहु चितिएण फिट्टइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ॥१॥ जइ पविससि पायालं अडवि व दरि गुहं समुहवा । पुवकयाउ न चुक्कसि, अप्पाणं घायसे जइ वि ॥२॥
अर्थात्- अरे जीव ! तू उदास, दीन और दुःखितचित्त मत हो, क्योंकि जो दुःख तूने पहले पैदा किया है, वह चिन्ता करने से मिट नहीं सकता है । चाहे तू पाताल में प्रविष्ट हो जाय, अथवा किसी गहन जंगल में जाकर छिप जाय, या पर्वत की गुफा में जाकर छिप जाय अथवा तू अपनी आत्महत्या करले, परन्तु पूर्वजन्म कृतकर्म से तू बच नहीं सकता।
निष्कर्ष यह है कि कुशील व्यक्ति, चाहे जितना छिपकर एकान्त गुप्त स्थान में कुकर्म करले, वह उसके फल से कदापि बच नहीं सकता।
मूल पाठ जे मायरं वा पियरं च हिच्चा समणव्वए अणि समारभिज्जा। अहाहु से लोए कुसीलधम्मे भूयाइं जे हिंसति आयसाते ॥५॥
संस्कृत छाया यो मातरं वा पितरं च हित्वा, श्रमणव्रतेऽग्नि समारभेत । अथाहुः स कुशीलधर्मा भूतानि यो हिनस्त्यात्मसाते ॥५॥
अन्वयार्थ (जे) जो व्यक्ति (मायरं वा पियरं च) माता और पिता को (हिच्चा) छोड़ कर (समणव्वए) श्रमणव्रत को धारण करके (अणि समारंभिज्जा) अग्निकाय का आरम्भ करता है, (जे आयसाते भूयाइं हिंसति) तथा जो अपनी सुख-सुविधा के लिए प्राणियों की हिंसा करता है, (से लोए कुसीलधम्मे) वह व्यक्ति लोक में कुशीलधर्म वाला है, (अहाहु) ऐसा सर्वज्ञपुरुषों ने कहा है।
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