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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन भी कारण से हरी वनस्पति आदि का छेदन करने वाले कई व्यक्ति तो गर्भ में ही समाप्त हो जाते हैं, कई स्पष्ट बोलने की उम्र तक मर जाते हैं, जबकि कई बोलने की उम्र आने से पहले ही मौत के मेहमान बन जाते हैं। तथा कोई कुमार-अवस्था में तो कोई जवान होकर, कोई प्रौढ़ होकर एवं कोई बुढ़ापा आने पर चल बसते हैं । आशय यह है कि वे इनमें से किसी भी अवस्था में आयुक्षय होते ही शरीर छोड़ देते हैं। इनको आयु कोई नियत या दीर्घ नहीं होती।
व्याख्या
वनस्पतिनाशक अल्पायु या अनियतायु होते हैं । इस गाथा में सजीव वनस्पति-छेदन का फल बताते हुए कहते हैं-जो जीव वनस्पतिकाय का छेदन-भेदन करते हैं, वे या तो गर्भावस्था तक आते-आते ही खत्म हो जाते हैं, या कोई बच गया तो बोलने तक की उम्र में ही चल देता है, अथवा स्पष्ट बोलने तक की उम्र आते-आते मौत के मुह में चला जाता है । कोई पाँच शिखा वाला कुमार होकर मर जाता है, तो कोई जवान, कोई प्रौढ़, तो कोई बूढ़ा होकर रोगग्रस्त अवस्था में चल बसता है। कहीं-कहीं 'थेरगा य' के बदले 'पोरुसा य' पाठ है । वहाँ अर्थ होता है --पुरुष की अन्तिम अवस्था पाकर यानी अत्यन्त वृद्ध, अशक्त और जराजीर्ण होकर मरता है। आशय यह है कि सजीव वनस्पति के विनाशकों की आयु न तो निश्चित है और न ही लम्बी है । या तो वे अल्पायु होते हैं, असमय में ही चल बसते हैं, या उनकी आयु अनिश्चित होती है, किसी भी समय मौत का वारण्ट आ सकता है। ऐसे लोगों को शरीर का अत्यधिक मोह होता है, जिससे मृत्यु जबर्दस्ती छुड़ा देती है । वह हाथ मलता रह जाता है, कुछ भी धर्माचरण नहीं कर पाता । कितनी बड़ी हानि है यह, वनस्पति काय के विनाशकों की !
मूल पाठ संबुज्झहा जंतवो ! माणुसत्त दटुं भयं बालिसेणं अलंभो। एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेइ ॥११॥
संस्कृत छाया सम्बुध्यध्वं जन्तवो ! मनुष्यत्वं, दृष्ट्वा भयं बालिशेनालाभः । एकान्तदुःखो ज्वरित इव लोकः, स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥११॥
अन्वयार्थ (जंतवो) हे प्राणियो ! (माणुसत्त) मनुष्यजन्म की दुर्लभता को (संबुज्झहा) समझो (भयं दट्ठ) नरक एवं तिर्यञ्च आदि योनियों के भय (खतरे) को देखकर तथा (बालिसेणं अलंभो) विवेकमूढ़ पुरुष को उत्तम विवेक का अलाभ (प्राप्ति का
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