________________
६७२
सूत्रकृतांग सूत्र
मुक्त हो जाते हैं । (इंदा व देवाहिव आगमिस्संति) अथवा इन्द्रों की तरह देवताओं के अधिपति--स्वामी होते हैं।
भावार्थ श्री सुधर्मास्वामी गणधर श्री जम्बूस्वामी से वीरस्तुति का उपसंहार करते हुए कहते हैं--जो साधक रागद्वष विजेता अरिहन्त भगवान महावीर द्वारा सम्यक् प्रकार से कथित धर्म को सुनकर युक्तियुक्त, तथा शब्द और अर्थ दोनों ही दृष्टियों से सर्वथा शुद्ध धर्म प्रवचन पर श्रद्धा रखेंगे वे व्यक्ति जन्ममरण के बन्धन (आयुष्य कर्मबन्धन) से रहित होकर सिद्ध-पद प्राप्त करेंगे, अथवा स्वर्ग में देवताओं के अधिपति--स्वामी इन्द्र बनेंगे ।
व्याख्या जिनेन्द्रभाषित धर्म के आराधकों की गति
___ इस गाथा में इस वीरस्तुति अध्ययन का उपसंहार करते हुए श्री सुधर्मास्वामी तीर्थकर वीरप्रभु के गुणोत्कीर्तन करने के पश्चात् अपने शिष्यों से कहते हैं कि श्री तीर्थंकर द्वारा भाषित जो श्रुत-चारित्ररूप अथवा दुर्गति में गिरती हुई आत्मा को धारण करके रखने वाले धर्म को, जो कि उत्तम युक्ति और हेतु से संगत है, जो अर्थों और शब्दों की दृष्टि से शुद्ध है, सुनकर, श्रद्धा करते हैं तथा आचरण करते हैं, वे जीव आयुकर्म से रहित हों तो सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करते हैं और यदि आयु के सहित हों तो इन्द्र आदि देवाधिपति होते हैं। यह इस गाथा का आशय है।
सारांश यह है कि इस अध्ययन में भगवान महावीर की स्तुति उनके साधनामय जीवन के विविध पहलुओं को लेकर उत्तमोत्तम विविध गुणों का विश्लेषण करके श्री सुधर्मास्वामी द्वारा की गई है।
इति शब्द समाप्ति का सूचक है, ब्रवीमि का अर्थ पूर्ववत् है।
इस प्रकार वीरस्तुति नामक छठा अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्यासहित सम्पूर्ण हुआ।
मक छठा अध्ययन समाप्त।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org