SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 716
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६७१ ऐसा किया था। प्राणियों को अष्टविध कर्म ही दुःख देते हैं । इसके अतिरिक्त भगवान् ने इहलोक और परलोक को भलीभाँति जानकर अथवा चार गति रूप संसार के विविध कारणों, चारों गतियों के स्वरूप तथा उनकी प्राप्ति के कारणों को जान कर उक्त सभी पापों को सर्वथा छोड़ दिया था। आशय यह है कि भगवान् ने स्वयं हिंसा आदि पापों का परित्याग करके दूसरों को भी इस धर्म में स्थापित किया था । वस्तुत: जो व्यक्ति अपने धर्म में स्वयं स्थित नहीं होता वह दूसरों को उस धर्म में स्थापित करने में समर्थ नहीं हो सकता । कहा भी है ब्र वाणोऽपि न्याय्यं स्ववचनविरुद्ध व्यवहरन्, परान्नलं कश्चिद् दमयितुमदान्तः स्वयमिति । भवान् निश्चित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद् दमयितुमदान्तं व्यवसितः ।। अर्थात्-जो मनुष्य कहता तो न्यायसंगत बात है, परन्तु अपने कथन से विरुद्ध आचरण करता है, वह स्वयं अजितेन्द्रिय होकर दूसरों को जितेन्द्रिय नहीं बना सकता। इसलिए प्रभो! आप स्वयं इस बात को जानकर तथा सारे संसार के स्वरूप का निश्चय करके सर्वप्रथम अपनी आत्मा का दमन करने के लिए प्रवृत्त हुए थे। तथा देवों के पूज्य चार ज्ञान के धनी, तीर्थंकर भगवान् (केवलज्ञान होने से पहले) मोक्षप्राप्ति के लिए अपने बलवीर्य का पूर्ण उपयोग करते हुए पूर्ण उत्साह के साथ उद्यम करते थे। मूल पाठ सोच्चा य धम्मं अरहंतभासियं, समाहियं अट्ठपओवसुद्धं । तं सद्दहाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्संति ॥२६॥ ॥त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया श्रुत्वा च धर्ममर्हद् भाषितं समाहितमर्थपदोपशुद्धं तं श्रद्दधानाश्च जना अनायुष, इन्द्रइव देवाधिपा आगमिष्यन्ति ।।२६।। ॥ इति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ (अरहंतभासियं) श्री अरिहन्तदेव द्वारा भाषित, (समाहियं अट्ठपओवसुद्ध) युक्तियुक्त और अर्थ तथा पदों से शुद्ध (धम्म सोच्चा). धर्म को सुनकर (तं सद्दहाणा) उस पर श्रद्धा रखने वाले (जणा अणाऊ) व्यक्ति आयुष्यकर्म से रहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy