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________________ ६७० सूत्रकृतांग सूत्र मूल पाठ से वारिया इत्थी सराइभत्त, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोगं विदित्ता आरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारं ॥२८॥ संस्कृत छाया स वारयित्वा स्त्रियां सरात्रिभक्तामुपधानवान् दुःखक्षयार्थाय । लोकेविदित्वाऽरं परं च, सर्वं प्रभुर्वारितवान् सर्ववारम् ॥२८॥ अन्वयार्थ (से पभ) वे वीरप्रभु (सराइभत्त इत्थी वारिया) रात्रिभोजन और स्त्री (स्त्रीसंसर्ग) छोड़कर (दुक्खखयट्ठयाए) दुःख के कारणभूत कर्मों के क्षय करने के लिए (उवहाणवं) सदा तप (विशिष्ट तप) में प्रवृत्त रहते थे । (आरं परं च लोगं विदित्ता) इहलोक और परलोक को जानकर (सव्ववारं सव्वं वारिय) भगवान ने समस्त प्रकार के सर्वपापों को छोड़ दिया था। भावार्थ वे भगवान महावीर प्रभु त्यागमार्ग के अतीव कठोर साधक थे। इसीलिए उन्होंने रात्रिभोजन तथा स्त्रीसम्पर्क दोनों का त्याग कर दिया। सांसारिक दुःखों की परम्परा का समूल नाश करने के लिए भगवान् ने उग्र तपश्चर्या की थी। लोक और परलोक के रहस्य एवं कारणों को जानकर भगवान ने लोक-परलोक सम्बन्धी वासनाओं का सर्वपापों का पूर्णरूप से त्याग कर दिया था। व्याख्या कठोर त्यागमार्ग के उत्कृष्ट साधक : वीरप्रभु इस गाथा में भगवान महावीर के द्वारा रात्रिभोजन, स्त्रीसंसर्ग तथा अन्य समस्त पापों का त्याग तथा तप क्यों किया गया था? इन सबका संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है। वास्तव में महावीर प्रभु कठोर त्यागमार्ग के साधक थे । इसीलिए उन्होंने हिंसा और अब्रह्मचर्य में कारण समझकर क्रमश: रात्रिभोजन एवं स्त्रीसम्पर्क का त्याग कर दिया था। यही नहीं, उन्होंने अपने संघ के साधु-साध्वियों के लिए भी इसी प्रकार का त्याग करना अनिवार्य बताया था। उपलक्षण से प्राणातिपात, मृषावाद आदि अन्य सभी पापों को भी छोड़ दिया था, यह भी इसके अन्तर्गत समझ लेना चाहिए । भगवान् ने अपने शरीर को तपश्चरण साधना से साध लिया था । ऐसा उन्होंने क्यों किया? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं-दुक्खखयट्ठयाए।' अर्थात् सभी प्राणियों को दुःख देने वाले कर्मों का क्षय करने के लिए ही उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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