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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६६६ क्रियावादियों का सिद्धान्त है कि क्रिया से ही मोक्ष मिलता है । अक्रियावादी ज्ञानवादी होते हैं, वे कहते हैं कि वस्तु के यथार्थ ज्ञान मात्र से ही मोक्ष हो जाता है, क्रिया की आवश्यकता नहीं है । जैसे कि सांख्यदर्शन की उक्ति है— पंचविशतितत्त्वज्ञो यत्र कुत्राश्रमे रतः 1 जटी मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नात्र संशय ॥ अर्थात् - पच्चीस तत्त्वों का जानकार व्यक्ति चाहे जिस आश्रम में हो, जटाधारी हो, मुडित हो या शिखाधारी, वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है । विनयवादी विनय से ही मोक्षप्राप्ति मानते हैं । वे कहते हैं -सबका विनय करो । गोशालक मतानुयायी वैनयिक कहलाते हैं, क्योंकि वे विनयाचार को ही महत्त्व देते हैं। चौथे अज्ञानवादी हैं, वे अज्ञान से ही मोक्ष मानते हैं । वे कहते हैं - ज्ञान से ही सब गड़बड़झाला पैदा होती है । वितण्डावाद, अहंकार आदि सब ज्ञान के कारण ही पैदा होते हैं । इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है । अनजाने में किया हुआ पाप दोषापत्तिकारक नहीं माना जाता है, उसका फल भी नहीं मिलता आदि । ' समतावादी भगवान् महावीर ने इन सभी मतवादियों के मतों को भली भाँति समझकर भव्यजीवों को इनमें निहित सत्य का रहस्य समझाते हुए स्वयं ने ज्ञान के साथ-साथ संयम का आचरण भी आजीवन किया । आपने जो कुछ भी कहा, उसे पहले अपने जीवन में आचरित करके बताया था। आप केवल वाणीशूर नहीं थे, अपितु आपने ज्ञान और क्रिया दोनों का सम्यक् आचरण किया था। जैसा कि जैनाचार्य प्रभु की स्तुति करते हुए कहते हैं यथा परेषां कथका विदग्धा: शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः । शिष्येरनुज्ञामलिनोपचारैर् वक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्ति ॥ अर्थात् - हे प्रभो ! दूसरे धर्म या दर्शन वाला विदग्ध ( विद्वान् ) कथक ( धर्मोपदेशक) शास्त्रों की रचना करके भी लघुता को प्राप्त हुए, क्योंकि अपने शिष्य तथा वे जो दूसरों को उपदेश देते हैं, तदनुसार स्वयं आचरण नहीं करते । इसलिए उनमें जो वक्तृत्व ( वाणी में पूर्वापर या कथनी करनी के विरोध रूप ) दोष हैं, वे दोष आप में कतई नहीं है, क्योंकि आपकी तो कथनी के अनुरूप करणी भी होती है । इसीलिए शास्त्रकार ने कहा - उचट्ठिए संयमदीहरायं । अर्थात् भगवान् संयम में दीर्घरात्रजीवन भर तक उद्यत रहे । १ क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी के ३६३ भेदों तथा उनके स्वरूप का विशेष विश्लेषण आगे यथाप्रसंग करेंगे । सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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