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सूत्रकृतांग सूत्र
दूसरे के पुरुषार्थ से हुई। स्वयं ही जब उन्होंने पूर्वोक्त अध्यात्म-दोषों के निवारण के लिए पुरुषार्थ किया, और स्वयं कषायों, रागद्वेष-मोह आदि पर विजय प्राप्त की, तब स्वतः वीतराग तीर्थंकर एवं महर्षि बने । वस्तुत: महषित्व भी तभी प्राप्त होता है, जब अध्यात्म-दोषों पर विजय प्राप्त करली जाती है, और पापों का कृत-कारितअनुमोदित रूप तीन करण एवं मन-वचन-काया तीन योग से त्याग किया जाता है। भगवान् ने दोनों प्रकार की आध्यात्मिक साधना करके आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हस्तगत की।
मूल पाठ किरियाकिरियं वेणइयाणवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणे । से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवठिए संजमदीहरायं ॥२७॥
संस्कृत छाया क्रियाऽक्रिये वैनयिकानुवादमज्ञानिकानां प्रतीत्य स्थानम् । स सर्ववादमिति वेदयित्वा, उपस्थितः संयमदीर्घरात्रम् ।।२७।।
अन्वयार्थ (किरियाकिरियं) क्रियावादी, अक्रियावादी तथा (वेणइयाणुवायं) विनयवादी (वैनयिक) के कथन को एवं (अण्णाणियाणं ठाणं पडियच्च) अज्ञानवादियों (अज्ञानिकों) के स्थान --मतपक्ष को जानकर (से इति सवायं वेयइत्ता) फिर इस प्रकार वे समस्तवादियों के मन्तव्य को समझाकर (संजमदीहरायं) आजीवन संयम में (उवट्ठिए) प्रवृत्त हुए, स्थिर रहे ।
भावार्थ भगवान महावीर ने क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद आदि सब प्रकार के मत-मतान्तरों को पहले स्वयं भली भाँति जाना, तत्पश्चात् जनता को समस्त वादियों का मन्तव्य तथा उनमें निहित सत्य का वास्तविक रहस्य समझाया । भगवान् ज्ञान के साथ संयम के बड़े उत्कृष्ट साधक थे। अत: वे जीवनपर्यन्त निर्दोष शुद्ध संयम में स्थित रहे।
व्याख्या
मतमतान्तरों के बीच भी सत्य और संयम में स्थिर इस गाथा में भगवान महावीर की समता, अनेकान्तवादिता एवं सत्यता तथा संयमनिष्ठा का परिचय दिया गया है कि किस प्रकार वे अनेकानेक मतमतान्तरों के बीच रहकर भी अपने को समता एवं अनेकान्तवाद की पगडंडी पर स्थिर रखते थे।
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