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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६६७ प्राणियों का रक्षणरूप अभय स्वयं देते थे और सदुपदेश देकर दूसरे से अभय दिलाते थे। तथा भगवान् वीर थे- अर्थात् आठ प्रकार के कर्मों को विशेषरूप से दूर करते थे। तथा जिसका अन्त (नाश) नहीं होता, यानी जो नित्य है अथवा ज्ञेय वस्तु के अनन्त होने से जो अनन्त है, ऐसा केवलज्ञान जिनका नेत्र के समान है, वे वीरप्रभु अनन्तचक्षु हैं। मूल पाठ कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा । एआणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वइ पावं ण कारवेइ ॥२६॥ संस्कृत छाया क्रोधञ्च मानं च तथैव मायां, लोभं चतुर्थञ्चाध्यात्मदोषान् । एतान् वान्त्वाऽहन् महर्षिन करोति पापं न कारयति ॥२६॥ अन्वयार्थ (अरहा महेसी) अर्हन्त महर्षि श्री महावीर स्वामी (कोहं च माणं च तहेव मायं) क्रोध, मान और माया (चउत्थं लोभं) तथा चौथा लोभ (एआणि) इन (अज्झत्थदोसा) अध्यात्म (आत्मा के अन्दर के) दोषों का (वंता) वमन - त्याग करके (ण पावं कुव्वइ ण कारवेइ) न तो स्वयं पाप करते थे, और न ही दूसरों से कराते थे। भावार्थ संसार के सर्वश्रेष्ठ महर्षि भगवान् महावीर क्रोध, मान, माया और लोभ आदि अध्यात्म दोषों (अन्तर के विकारों) का पूर्णतया त्याग करके अर्हन्त (पूज्य, विश्ववन्द्य) बन गए थे। इसके पश्चात् भगवान् ने न कभी स्वयं पापाचरण किया और न ही दूसरों से करवाया और न करने वालों का अनुमोदन ही किया। व्याख्या अन्तरंग दोषों एवं पापों से सर्वथा दूर अर्हन्त महर्षि इस गाथा में महर्षि भगवान महावीर के द्वारा कषायत्याग तथा पापों के कृतकारित-अनुमोदित रूप से सर्वथा त्याग करके अर्हत्पद प्राप्त करने का सारगर्भित निरूपण है। न्यायशास्त्र का यह एक माना हुआ तथ्य है कि 'कारण के नाश होने से कार्य का नाश हो जाता है'। इस दृष्टि से महर्षि भगवान महावीर ने संसार की उत्पत्ति के कारणभूत क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि आन्तरिक विकारों (अध्यात्म-दोषों) का त्याग करके अर्हत्पद प्राप्त किया। वीतरागता की प्राप्ति उन्हें किसी अन्य शक्ति से वरदान के रूप में नहीं हुई, न उनके बदले किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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