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________________ सूत्रकृतांग सूत्र बाह्य और आभ्यन्तर पदार्थों में गृद्धि-आसक्ति से रहित ये। (आसुपन्न ) सदा सर्वत्र उपयोगवान थे, (न सणिहि कुबइ) वे धन, धान्य आदि पदार्थों का बिलकुल संग्रह नहीं करते थे, अथवा वे क्रोधादि या परिजन, भक्ति आदि का सान्निध्य-संसर्गआसक्ति नहीं करते थे । (महाभवोघं सम्मुद्द व तरिउ) महान् संसार समुद्र के प्रवाह को समुद्र की तरह पार करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया था। (अभयंकरे वीर अणंतचक्खू) भगवान् सभी प्राणियों को अभय देने या करने वाले थे, कर्मों को विदारण करने के कारण वीर थे, अनन्त चक्षु (अनन्तज्ञानसम्पन्न) थे । भावार्थ भगवान् महावीर पृथ्वी के समान सब जीवों के आधारभूत थे, अथवा पृथ्वी के समान भयंकर उपसर्गों और परीषहों के कष्टों को समभाव से सहने वाले क्षमावीर थे । कर्ममल का नाश करने वाले थे। आशा, तृष्णा, मूर्छा-ममता या आसक्ति से सर्वथा दूर थे। भगवान् ने धन-धान्य आदि किसी भी वस्तु का कभी संग्रह न किया। उनका ज्ञान निरन्तर उपयोग सहित था। महाभयंकर संसार समुद्र को समुद्रवत् तैरकर वीरप्रभु अभयंकर (सब प्राणियों को अभय करने वाले) बन गए थे और इसी प्रकार वे अनन्तचक्ष थे, चक्ष की तरह मार्गदर्शक थे, नेता थे, अथवा अनन्तज्ञानी बन गए थे। व्याख्या अनेक विशिष्ट गुणों के निधि : भगवान् महावीर इस गाथा में भगवान महावीर को सर्वसहिष्णु, सर्वाधार, कर्ममुक्त, अनासक्त, असंग्रही, संसारसमुद्रपारगामी, अभयंकर, वीर और अनन्तचक्षु बताकर उन्हें गुणों के भण्डार बताया है। जैसे पृथ्वी सब जीवों का आधार है, उसी तरह भगवान् महावीर भी सबको अभय देने एवं उत्तम हित कर उपदेश देने से सब जीवों के आधार थे । अथवा पृथ्वी जैसे सर्वसहा एवं क्षमा कहलाती है, वैसे ही भगवान् भी समस्त परीषहों और उपसर्गों को भली-भाँति समभाव से सहते थे और क्षमाशील थे। भगवान् आठों ही कर्मों को सर्वथा नष्ट करने वाले थे, वे बाह्याभ्यन्तर वस्तुओं की गृद्धि आशा-तृष्णा से रहित थे। सन्निधि सन्निधान या निकटता को कहते हैं। धन-धान्य आदि तथा द्विपद-चतुष्पद आदि के सम्पर्क या संग्रह को द्रव्यसन्निधि कहते हैं, और सामान्यरूप से सब कषायों या विकारों के सम्पर्क को भावसन्निधि कहते हैं। भगवान् दोनों प्रकार की सन्निधि नहीं करते थे। वे आशुप्रज्ञ थे, अर्थात् सर्वत्र सदैव उपयोगवान थे, छद्मस्थ की तरह मन से सोचकर पदार्थ का निश्चय नहीं करते थे। भगवान् ने बहुत दुःखों से भरे चार गति वाले संसार-सागर को पार करके सर्वोत्तम मोक्षपद को प्राप्त कर लिया था। वे अभयंकर थे, अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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