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________________ सप्तम अध्ययन : कुशील- परिभाषा इस अध्ययन का संक्षिप्त परिचय छठे अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है । अब सातवाँ अध्ययन प्रारम्भ किया जा रहा है । इसका पहले के अध्ययनों के साथ सम्बन्ध यह है कि प्रथम अध्ययन के प्रारम्भ में बन्धन को जानकर उसे तोड़ने का निर्देश दिया था । कर्मबन्धन के सन्दर्भ में उसके करणों और उनके निवारण का उपाय भी साथ-साथ प्रत्येक अध्ययन में शास्त्रकार बताते चले गये हैं । बन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, आदि पाँच कारणों में से कुशील भी अविरति के अन्तर्गत आता है । क्योंकि कुशीलसेवन से जो कर्मबन्धन होता है, वह इतना गाढ़तर होता है कि अन्त में दुर्गति में जाने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता । एक बार नरकादि दुर्गति में जाने के बाद मिथ्यात्वसम्पन्न प्राणी के लिए भारी कर्मबन्धनों को काटने और पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करके व्रताचरण या सुशील का आचरण करना अतीव दुष्कर है । इसलिए शास्त्रकार ने इस अध्ययन का नाम कुशीलपरिभाषा देकर यह बताया है कि कुशील जीव को कैसे-कैसे कर्मबन्धन होते हैं और वह कैसे अपनी आत्मा को कर्मों से भारी कर लेता है ? पूर्व अध्ययन वीरस्तुति में शील के आदर्श श्रमण भगवान् महावीर की चर्या, उनकी विशिष्ट गुणावली, उनके ध्यान, ज्ञान, तप, शील, दर्शन आदि का वर्णन किया गया है, अब इसमें उससे विपरीत कुशील के सम्बन्ध में बताया गया है, जो सुशील के आदर्शों और आचारविचारों से बिलकुल विपरीत है । इसी कारण इस अध्ययन का नाम कुशीलपरिभाषा रख गया है। इसका सिर्फ एक ही उद्दे शक है । इस अध्ययन का अर्थाधिकार यह है कि परतीर्थी, स्वयूथिक पार्श्वस्थ आदि को, जिनका कि आचार-विचार अहिंसा, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य, या अपरिग्रहवृत्ति के अनुकूल नहीं है, जो सरलभाव से अपने दोषों और अपराधों को स्वीकार न करके, अथवा भूलों का परिमार्जन न करके अपने पूर्वाग्रहों पर ही दृढ़ रहते हैं, शिथिल या विपरीत विचार आचार को सुशील बताते हैं, वे सब चाहे स्वतीर्थिक हों, परतीर्थिक हों, कुशील जनों में परिगणित किये जाते हैं । इस अध्ययन में उक्त कुशील जनों के आचार-विचार, उनका फल तथा उनके फलस्वरूप दुर्गतिगमन आदि का वर्णन है । ६७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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