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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६५६ व्याख्या संस्कृत छाया यथा स्वयम्भूरुदधीनां श्रेष्ठः, नागेषु वा धरणेन्द्रमाहुः श्रेष्ठम् । इक्षुरसोदको वा रसवैजयन्तः, तप उपधाने मुनिवैजयन्तः ॥२०॥ अन्वयार्थ (जहा) जैसे (उदहीणं) समुद्रों में (सयंभू सेठे) स्वयम्भूरमण समुद्र श्रेष्ठ है, (नागेसु वा) तथा नागों (भवनपतिदेव विशेषों) में (धरणिदं सेठे माहु) प्ररणेन्द्र को श्रेष्ठ कहा है, (खोओदए वा रसवेजयंते) इक्षुरसोदक समुद्र जैसे समस्त रस रस वालों में प्रधान है, (तवोवहाणे मुणिवेजयंते) इसी तरह प्रधान (विशिष्ट) तप के द्वारा भगवान महावीर सब मुनियों में शिरोमणि हैं । भावार्थ जिस प्रकार सब समुद्रों में स्वयम्भरमण समुद्र प्रधान है, नागकुमार जाति के भवनपतिदेवों में उनका इन्द्र धरणेन्द्र प्रधान है, सब रसों में ईख का मधुर रस प्रधान है, अथवा सब रस वाले सागरों में इक्षरसोदक समुद्र प्रधान है, इसी प्रकार विशिष्ट तप:साधना के क्षेत्र में भगवान महावीर समस्त मुनियों में प्रधान थे। तपःसाधना के क्षेत्र में सर्वोपरि मुनिश्रेष्ठ भगवान महावीर इस गाथा में भगवान् महावीर को तपस्या के क्षेत्र में समस्त लोक की पताका के समान सर्वोपरि मुनिवर तीन उपमाओं द्वारा बताया गया है -- पहली उपमा दी गई है-स्वयम्भू रमण समुद्र से, दूसरी दी गई है --- धरणेन्द्र' से, और तीसरी दी गई है-इक्षुरसोदक से। जो अपने आप उत्पन्न होते हैं, वे स्वयम्भू कहलाते हैं, देवों को स्वयम्भू कहा जाता है, वे (स्वयम्भू देव) जहाँ जाकर रमण--क्रीड़ा करते हैं, उसे स्वयम्भूरमण समुद्र कहते हैं, वह एक विशिष्ट एवं लोक में समस्त द्वीप-समुद्रों के अन्त में विद्यमान है। उसे समस्त समुद्रों में श्रेष्ठ समुद्र माना जाता है, तथा नागकुमारजाति के भवनपति देवों का इन्द्र धरणेन्द्र कहलाता है, वह नागजाति में प्रधान (श्रेष्ठ) कहलाता है, इसी प्रकार समस्त रसों में इक्षुरस श्रेष्ठ माना जाता है, अथवा ईख के रस के समान जिसका जल मधुर है, वह इक्षुरसोदक समुद्र अपने माधुर्यगुणों के कारण समस्त रस वालों-समस्त समुद्रों की पताका के समान प्रधान माना जाता है । इसी प्रकार अपनी विशिष्ट तपस्या के उपधान से जगत् की तीनों अवस्थाओं को जानने वाले (मुनि) भगवान् महावीर समग्रलोक की पताका के समान सर्वोपरि हैं। मूल पाठ हत्थीसु एरावणमाहु णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा । पक्खीसु वा गरुलेवेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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