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मूल पाठ
थणियं व सद्दाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे । गंधेसु वा चंदणमाह सेट्ठ, एवं मुणीणं अपडिन्नमाहु संस्कृत छाया
॥१६॥
सूत्रकृतांग सूत्र
स्तनितमिव शब्दानामनुत्तरस्तु चन्द्र इव ताराणां महानुभावः । गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठमेवं मुनीनामप्रतिज्ञमाहुः
।। १६ ।।
अन्वयार्थ
(सद्दाण) शब्दों में ( थणियं व ) जैसे मेघगर्जन (अणुत्तरे ) प्रधान है। (ताराण ) और तारों में (महाणुभावे चंदो व ) जैसे महाप्रभावशाली चन्द्रमा श्रेष्ठ है, (गंधेसु चंदणं वा सेट्ठमाहु) सुगन्धों में जैसे चन्दन को श्रेष्ठ कहा है, ( एवं ) इसी प्रकार (मुणी) मुनियों में (अपडितमाह ) कामनारहित भगवान् महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहा है ।
भावार्थ
जिस प्रकार शब्दों में मेघ की गम्भीर गर्जना का शब्द अनुपम है, तारामण्डल में चन्द्र महानुभाव - महाप्रभावशाली है, सुगन्धित वस्तुओं में मलय ( बावना चन्दन) श्रेष्ठ कहा है, उसी प्रकार भूमण्डल के समस्त मुनियों में लोक-परलोक की वासना से सर्वथा मुक्त भगवान् महावोर श्रेष्ठ थे !
व्याख्या
,
मुनियों में श्रेष्ठ महावीर क्यों और किस तरह ? इस गाथा में भगवान् महावीर को तीन उपमाएँ देकर मुनियों में श्रेष्ठ बताया गया है । पहली उपमा है मेघगर्जन की दूसरी है - तारामण्डल की और तीसरी है - चन्दन की । ये तीनों शब्द रूप और गन्ध तीनों के प्रतीक हैं । इस मण्डल में शब्दों में जैसे मेघगर्जन प्रधान है, नक्षत्रों में सबको आनन्ददायक कान्ति के द्वारा महानुभाव ( महाप्रभावशील ) चन्द्रमा प्रधान है, तथा गन्धों ( गन्धवाले पदार्थों) में गोशीर्ष चन्दन ( या मलय चन्दन) श्रेष्ठ है, इसी प्रकार मुनियों में इस लोक-परलोक के सुख की कामना न करने वाले भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं ।
मूल पाठ
जहा सयंभू उदहीण सेट्ठे, नागेसु वा धरणिदमाहु सेट्ठे । खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवहाणे मुणिवेजयं ते
॥२०॥
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