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वीरस्तुति : छठा अध्ययन
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द्रष्ट्रा पर्वतों से सुशोभित, समभूभाग में १० हजार योजन विस्तृत एवं प्रत्येक ६० योजन पर एक योजन के ११वें भाग से कम विस्तार वाला, बाकी का योजन के दशभाग विस्तृत, ऐसा मेरुपर्वत है । उसके सिर पर ४० योजन की ऊँची चोटी है। सुमेरु पर्वतों का राजा है । इसी तरह भगवान् महावीर भी तपस्वी, त्यागी साधु श्रावकों के राजा यानी नेता थे । भगवान् की अधिनायकता में हजारों साधक वासना पर विजय पाकर बड़े आनन्द से मोक्ष साम्राज्य के अधिकारी बने ।
सुमेरु पर्वत नाना प्रकार के रत्नों की प्रभा के कारण रंग-बिरंगा लगता है, इसी प्रकार भगवान् महावीर भी सत्य, शील, क्षमा, ज्ञान, दर्शन आदि अनेक गुणों के कारण अनन्त रूप थे । जैसे सुमेरुपर्वत में से चारों ओर प्रकाश की उज्ज्वल किरणें निकलती रहती हैं जो दशों दिशाओं को अपने आलोक से उद्भासित करती हैं, तथैव भगवान् महावीर भी अपने ज्ञान का प्रकाश लोक - अलोक में सर्वत्र फैलाते थे । कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं जो उनके अनन्तज्ञान से उद्भासित न होता हो ?
चौदहवीं गाथा में शास्त्रकार सुमेरु पर्वत के वर्णन का उपसंहार करते हुए कहते हैं - 'एतो मे समणे नायपुत्त जातिजसो दंसणनाणशीले ।' अर्थात् सुमेरु पर्वत की उपमा भगवान् महावीर को दी है । पर्वतराज सुमेरु जैसे लोक में यशस्वी कहलाता है, वैसे ही भगवान् महावीर भी तीनों लोकों में महायशस्वी थे । प्रकार मेरु अपने गुणों के कारण श्रेष्ठ कहलाता है, वैसे ही भगवान् भी अपनी जाति', यश, दर्शन, ज्ञान और शील आदि सद्गुणों में सर्वश्रेष्ठ थे ।
मूल पाठ
गिरिवरे वा निसहाययाणं, रुयए व सेट्टे वलयायताणं । तओवमे से जगभूइपन्न, मुणीण मज्भे तमुदाहु पन्ने ॥ १५ ॥
१. भगवान् महावीर के राजवंश के कारण उन्हें ज्ञातपुत्र कहा जाता था । क्षत्रियों की ज्ञात शाखा में उनका जन्म हुआ था । आजकल भी ज्ञातृ या ज्ञात जाति वैशाली नगरी (जिला मुजफ्फरपुर के अन्तर्गत बसाड़) के आसपास जथरिया भूमिहर जाति के रूप में विद्यमान है । जथरिया शब्द ज्ञातृ शब्द का ही अपभ्रंश है, ज्ञातृ - ज्ञातर -- जातर — जतरिया - जथीरिया, यों रूप बिगड़ता गया है । भगवान् महावीर का गोत्र काश्यप था, जथरिया जाति का है । जथरिया जाति के सिंहान्त नाम क्षत्रिय होने के थरिया जाति में बहुत से जमींदार और राजा हैं ।
गोत्र भी काश्यप
सूचक हैं। आज भी
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