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________________ ६५० सूत्रकृतांग सूत्र (से) वह सुमेरु पर्वत (णभे पुढे) आकाश को छूता हुआ, (भूमिवट्ठिए चिट्ठइ) पृथ्वी पर स्थित है, (जं) जिसकी (सूरिया) सूर्यगण (अणुपरिवट्टयति) परिक्रमा देते हैं। (हेमवन्ने) वह सुनहरी रंग वाला (बहुनंदणे य) बहुत से नन्दनवनों से युक्त है, (जसी) जिस पर (महिंदा) महेन्द्रगण (रति वेदयंति) आनन्द का अनुभव करते हैं ॥११॥ (से पव्वए) वह पर्वत (सहमहप्पगासे) अनेक नामों से अतिप्रसिद्ध है, (कंचणमट्ठवणे) तथा वह सोने की तरह शुद्ध वर्ण वाला (विरायती) सुशोभित है। (अणुत्तरे) वह सब पर्वतों में श्रेष्ठ है। (गिरिसु य पव्वदुग्गे) वह सभी पर्वतों में उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है (से गिरिवरे) वह पर्वतश्रेष्ठ (भोमे व जलिए) मणि और औषधियों से प्रकाशित भू प्रदेश की तरह प्रकाश करता है ॥१२॥ (नगिदे) वह पर्वतराज (महीइ मज्झंमि) पृथ्वी के मध्य में (ठिए) स्थित है। (सूरिय सुद्धलेसे) वह सूर्य के समान शुद्ध कान्ति वाला (पन्नायते) प्रतीत होता है, (एवं) इसी तरह (सिरिए उ) वह अपनी शोभा से (भूरिवन्ने) अनेक वर्णवाला (मणोरमे) और मनोहर है (अच्चिमाली) वह सूर्य की तरह (जोयइ) सब दिशाओं को प्रकाशित करता है ॥१३॥ (महतो पव्वयस्स) महान् पर्वत (सुदंसणस्स गिरिस्स) सुदर्शन गिरि का यश पूर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है। (समणे नायपुत्ते एतोवमे) ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर को इसी पर्वत से उपमा दी जाती है। (जाती जसो सणनाणसीले) भगवान् जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सबसे श्रेष्ठ हैं ।।१४।। भावार्थ वह सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है। वह निन्यानवे हजार योजन भूमि से ऊपर आकाश में है, और एक हजार योजन नीचे भूमि के गर्भ में है । इसके तीन काण्ड (विभाग) हैं । सबसे ऊपर के काण्ड में पण्डकवन है जो ध्वजा के समान बहुत सुन्दर मालूम होता है ।।१०।। वह सुमेरुपर्वत ऊपर आकाश को और नीचे पृथ्वी को स्पर्श करके खड़ा हुआ है। सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहगण अविराम गति से उसके चारों और प्रदक्षिणा करते रहते हैं। स्वर्ण के समान उसकी सुन्दर कान्ति और वर्ण है। वह अनेक नन्दन आदि वनों से सुशोभित है। साधारण देवों की तो बात ही क्या, स्वयं महेन्द्र भी सुमेरु पर आकर विश्रान्ति का आनन्दानुभव करते हैं ।।११।। सुमेरुपर्वत की कन्दराओं में से देवों का कोमल संगीत स्वर दूर-दूर तक गूंजता रहता है । तपे हुए सोने-सी उज्ज्वल कान्ति से वह सुशोभित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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