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________________ वीरस्तुति : छठा अध्ययन ६४५ थे, सब प्रकार के उपसर्गों और परीषहों को समभाव से सहन करने में धीर थे । सूर्य जैसे सबसे अधिक तपता है, वैसे ही वे उत्कृष्ट तप करने वाले थे, या सूर्य के समान अखण्ड तेजस्वी थे । वैरोचन इन्द्र या प्रचण्ड वैरोचन अग्नि के समान अज्ञानान्धकार नष्ट करके ज्ञान का प्रकाश करते थे । व्याख्या भगवान् महावीर भूतिप्रज्ञ थे । भगवान् महावीर के विशिष्ट गुण भूति शब्द वृद्धि, रक्षा और मंगल अर्थ में प्रयुक्त होता है, इसलिए यहाँ भूतिप्रज्ञ के तीन अर्थ सम्भव हैं ( १ ) बढ़ी हुई प्रज्ञा वाले—अनन्तज्ञानवान्, ( २ ) जगत की रक्षा में तत्पर प्रज्ञा से सम्पन्न तथा ( ३ ) विश्वमंगलकारी प्रज्ञा से युक्त | भगवान् अनिकेतचारी या अनियतचारी थे । अर्थात् गृहादिप्रतिबन्धों को छोड़कर विचरण करते थे, अथवा समस्त सांसारिक प्रतिबन्धों से रहित उनका गमन – विहार था यानी वे अप्रतिबद्धविहारी तथा अनियत स्थान पर विचरणशील थे । संसार समुद्र के ओघ - प्रवाह को तैरने वाले थे । वे उत्तम बुद्धि से विभूषित थे या परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करने में धीर थे । भगवान् अनन्तचक्षु थे, अर्थात् ज्ञेय पदार्थों की अनन्तता होने के कारण अथवा ज्ञान की नित्यता के कारण उनका केवलज्ञान चक्षु था, अथवा भगवान् का ज्ञान लोक के अनन्त पदार्थों का प्रकाशक होने के कारण चक्षुभूत होने से से अनन्तचक्षु थे । जैसे संसार में सूर्य सबसे अधिक तपता है, उसी प्रकार भगवान् संसार में सर्वाधिक या सर्वोत्कृष्ट तप करने वाले थे, अथवा ज्ञान में सर्वोत्कृष्ट थे । जैसे प्रज्वलित होने के कारण इन्द्रस्वरूप अग्नि अथवा वैरोचन नामक इन्द्र अन्धकार को मिटाकर प्रकाश फैलाता है, वैसे ही भगवान् अज्ञानान्धकार को दूर करके पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे । इस प्रकार भगवान् महावीर अनेक उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित थे । मूल पाठ अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आपने । इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेता दिवि णं विसिट्ठे ॥७॥ संस्कृत छाया 1 अनुत्तरं धर्ममिमं जिनानां नेता मुनिः काश्यप आशुप्रज्ञः इन्द्र इव देवानां महानुभावः, सहस्रनेता दिवि खलु विशिष्टः ||७|| अन्वयार्थ (आसुन्ने) सर्वत्र सर्वदा उपयोगसम्पन्न प्रज्ञावान, (कासव) काश्यपगोत्रीय (मुणी) मननशील मुनि, श्री वर्द्धमान स्वामी ( जिणाणं) ऋषभ आदि जिनेश्वरों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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